SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 262
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४३ पुण्यपापाधिकार ज्ञानस्य ज्ञानं मोक्षहेतुः स्वभाव: परभावेनाज्ञाननाम्ना कर्ममलेनावच्छन्नत्वात्तिरोधीयते, परभावभूतमलावच्छन्नश्वेतवस्त्रस्वभावभूतश्वेतस्वभाववत् । ज्ञानस्य चारित्रं मोक्षहेतुः स्वभाव: परभावेन कषायनाम्ना कर्ममलेनावच्छन्नत्वात्तिरोधीयते, परभावभूतमलावच्छन्नश्वेतवस्त्रस्वभावभूतश्वेतस्वभाववत् । अतो मोक्षहेतुतिरोधानकरणात् कर्म प्रतिषिद्धम् ।।१५७-१५९ ।। अथ कर्मणः स्वयं बन्धत्वं साधयति - सो सव्वणाणदरिसी कम्मरएण णियेणावच्छण्णो । संसारसमावण्णो ण विजाणदि सव्वदो सव्वं ।।१६०।। स सर्वज्ञानदर्शी कर्मरजसा निजेनावच्छन्नः। संसारसमापन्नो न विजानाति सर्वत: सर्वम् ।।१६०।। जिसप्रकार परभावरूप मैल से व्याप्त होता हुआ श्वेत वस्त्र का स्वभावभूत श्वेतस्वभाव तिरोभूत हो जाता है; उसीप्रकार मोक्ष का कारणरूप ज्ञान का ज्ञानस्वभाव परभावरूप अज्ञान नामक कर्मरूपी मैल के द्वारा व्याप्त होने से तिरोभूत हो जाता है। जिसप्रकार परभावरूप मैल से व्याप्त होता हुआ श्वेत वस्त्र का स्वभावभूत श्वेतस्वभाव तिरोभूत हो जाता है; उसीप्रकार मोक्ष का कारणरूप ज्ञान का चारित्रस्वभाव परभावरूप कषाय नामक कर्मरूपी मैल के द्वारा व्याप्त होने से तिरोभूत हो जाता है। इसलिए मोक्ष के कारणरूप सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र का तिरोधान करनेवाला होने से कर्म का निषेध किया गया है।" इसप्रकार गाथा और टीकाओं में सफेद वस्त्र के उदाहरण के माध्यम से यह स्पष्ट किया है कि जिसप्रकार कपड़े की सफेदी मैल से ढक जाती है; उसीप्रकार आत्मा का परमपवित्र निर्मल स्वभाव शुभाशुभभावों से ढक जाता है। यही कारण है कि मुक्ति के मार्ग में शुभाशुभभावों का निषेध किया गया है। अब यह कहते हैं कि ये शुभाशुभभावरूप कर्म न केवल बंध के कारण हैं, अपितु स्वयं बंधस्वरूप ही हैं। इसी भाव को व्यक्त करनेवाली आगामी गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत ) सर्वदर्शी सर्वज्ञानी कर्मरज आछन्न हो। संसार को सम्प्राप्त कर सबको न जाने सर्वतः ।।१६०।। यद्यपि वह आत्मा सबको देखने-जानने के स्वभाववाला है; तथापि अपने कर्ममल से लिप्त होता हुआ, संसार को प्राप्त होता हुआ; सर्वप्रकार से सबको नहीं जानता। इस गाथा में यह कह रहे हैं कि यद्यपि इस भगवान आत्मा का स्वभाव तो सभी को देखनेजानने का है; तथापि अपने विकारीभावरूप कर्ममल से लिप्त होने के कारण वर्तमान में सबको देखने-जानने में असमर्थ है। आश्चर्य की बात तो यह है कि यह सबको देखने-जानने में असमर्थ होने के साथ-साथ सबको जानने-देखने के स्वभाववाले अपने आत्मा को भी नहीं जानता।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy