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पुण्यपापाधिकार
२४५ सम्यक्त्वप्रतिनिबद्धं मिथ्यात्वं जिनवरैः परिकथितम् । तस्योदयेन जीवो मिथ्यादृष्टिरिति ज्ञातव्यः ।।१६१।। ज्ञानस्य प्रतिनिबद्धं अज्ञानं जिनवरैः परिकथितम् । तस्योदयेन जीवोऽज्ञानी भवति ज्ञातव्यः ।।१६२।। चारित्रप्रतिनिबद्धः कषायो जिनवरैः परिकथितः ।
तस्योदयेन जीवोऽचारित्रो भवति ज्ञातव्यः ।।१६३।। सम्यक्त्वस्य मोक्षहेतोः स्वभावस्य प्रतिबन्धकं किल मिथ्यात्वं, तत्तु स्वयं कर्मैव, तदुदयादेव ज्ञानस्य मिथ्यादृष्टित्वम्।
ज्ञानस्य मोक्षहेतोः स्वभावस्य प्रतिबन्धकं किलाज्ञानं, तत्तु स्वयं कर्मैव, तदुदयादेव ज्ञानस्याज्ञानित्वम्।
चारित्रस्य मोक्षहेतोः स्वभावस्य प्रतिबन्धकः किल कषायः, स तु स्वयं कर्मैव, तदुदयादेव ज्ञानस्याचारित्रत्वम् ।
सम्यक्त्व का प्रतिबंधक मिथ्यात्व है - ऐसा जिनवरों ने कहा है। उसके उदय से जीव मिथ्यादृष्टि होता है - ऐसा जानना चाहिए।
ज्ञान का प्रतिबंधक अज्ञान है - ऐसा जिनवरों ने कहा है। उसके उदय से जीव अज्ञानी होता है - ऐसा जानना चहिए।
चारित्र की प्रतिबंधक कषाय है- ऐसा जिनवरों ने कहा है। उसके उदय से जीव अचारित्रवान होता है - ऐसा जानना चाहिए।
इन सीधी-सरल गाथाओं का सीधा-सरल भाव आत्मख्याति में इसप्रकार व्यक्त किया गया है - "मोक्ष के कारणभूत सम्यक्त्वस्वभाव का प्रतिबंधक मिथ्यात्व है। वह स्वयं कर्म ही है
उसके उदय से ही ज्ञान (आत्मा) के मिथ्यादृष्टिपना होता है।
मोक्ष के कारणभूत ज्ञानस्वभाव का प्रतिबंधक अज्ञान है। वह स्वयं कर्म ही है और उसके उदय से ज्ञान (आत्मा) के अज्ञानीपना होता है।
मोक्ष के कारणभूत चारित्रस्वभाव की प्रतिबंधक कषाय है। वह स्वयं कर्म ही है और उसके उदय से ज्ञान (आत्मा) के अचारित्रपना होता है।
इसलिए यहाँ मोक्ष का तिरोधायी होने से कर्म का निषेध किया गया है।"
इसप्रकार गाथा और टीकाओं का निष्कर्ष यह है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र मोक्ष के कारणरूप भाव हैं और इनके प्रतिबंधक मिथ्यात्वादिभाव हैं, जो स्वयं ही कर्मरूप हैं । यही कारण है कि कर्मरूप समस्त शुभाशुभभावों का मुक्तिमार्ग में निषेध किया गया है।
अधिकार के समापन के अवसर पर आचार्य अमृतचन्द्र चार कलश लिखते हैं, जिनमें पहले