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समयसार ___ इह खलु के चिन्निखिलकर्मपक्षक्षयसंभावितात्मलाभं मोक्षमभिलषंतोऽपि तद्धेतुभूतं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रस्वभावपरमार्थभूतज्ञानभवनमात्रमैकाग्र्यलक्षणं समयसारभूतं सामायिकं प्रतिज्ञायापि दुरंतकर्मचक्रोत्तरणक्लीबतया परमार्थभूतज्ञानभवनमानं सामायिकमात्मस्वभावमलभमानाः प्रतिनिवृत्तस्थूलतमसंक्लेशपरिणामकर्मतया प्रवृत्तमानस्थूलतमविशुद्धपरिणामकर्माणः कर्मानुभवगुरुलाघवप्रतिपत्तिमात्रसंतुष्टचेतसः स्थूललक्ष्यतया सकलं कर्मकांडमनुन्मूलयंतः स्वयमज्ञानादशुभकर्म केवलं बंधहेतुमध्यास्य च व्रतनियमशीलतप:प्रभृति शुभकर्म बंधहेतुमप्यजानंतो मोक्षहेतुमभ्युपगच्छंति ।।१५४।।
“समस्त कर्मों के पक्ष के क्षय से प्राप्त होनेवाले आत्मलाभरूप मोक्ष की अभिलाषा करके तथा मोक्ष की कारणभूत सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र स्वभाववाली तथा परमार्थभूत ज्ञानभवनमात्र एकाग्रता लक्षणवाली समयसारभूत सामायिक की प्रतिज्ञा करके भी जो जीव दुरन्तकषायचक्र को पार करने की नपुंसकता के कारण परमार्थभूत ज्ञान के भवनमात्र सामायिकस्वरूप आत्मस्वभाव को प्राप्त न होते हुए, अत्यन्त स्थूल संक्लेशपरिणामरूप कर्मों से निवृत्त होने पर भी अत्यन्त स्थूल विशुद्धपरिणामरूप कर्मों में प्रवर्त रहे हैं; वे कर्म के अनुभव के गुरुत्व-लघुत्व की प्राप्ति मात्र से ही सन्तुष्ट चित्त होते हए भी स्वयं स्थूललक्ष्यवाले होकर संक्लेश परिणामों को छोड़ते हए भी समस्त कर्मकाण्ड को जड़मूल से नहीं उखाड़ते।।
इसप्रकार वे स्वयं अपने अज्ञान से केवल अशुभकर्म को बंध का कारण मानकर; व्रत, नियम, शील, तपादि शुभकर्मों को; बंध का कारण होने पर भी, उन्हें बंध कारण न मानकर मोक्ष के कारणरूप से अंगीकार करते हैं अर्थात् मोक्ष के कारणरूप में उनका आश्रय करते हैं।"
उक्त सम्पूर्ण कथन का तात्पर्य यह है कि कर्मक्षय का मूलहेतु तो निज भगवान आत्मा के ज्ञान, श्रद्धान और ध्यानरूप सामायिक या शुद्धोपयोग ही है, शुभाशुभभाव नहीं हैं; क्योंकि शुभाशुभभाव तो कर्मबंध के कारण हैं। अज्ञानी जीव इस बात को गहराई से समझते नहीं और पुण्यभाव को ही कर्मक्षय का हेतु जानकर उसी में मग्न रहते हैं। ___ आचार्य जयसेन यहाँ पुण्याधिकार को समाप्त मानते हैं। इस गाथा की टीका के अन्त में वे लिखते हैं - "इसप्रकार इन दस गाथाओं के द्वारा यह पुण्याधिकार समाप्त हुआ।"
ध्यान रहे, आचार्य जयसेन यहाँ पुण्याधिकार की समाप्ति की सूचना दे रहे हैं, पुण्य-पापाधिकार की समाप्ति की नहीं; क्योंकि पुण्य-पापाधिकार की समाप्ति तो वे भी आचार्य अमृतचन्द्र के समान यहाँ से ९ गाथाओं के बाद १६३वीं गाथा पर ही करेंगे।
१५४वीं गाथा में बड़ी दृढ़ता से यह कहा गया है कि शुभाशुभभाव मुक्ति के हेतु नहीं हैं; अत: यह जिज्ञासा जागृत होना स्वाभाविक ही है कि मुक्ति का वास्तविक हेतु क्या है ? इस जिज्ञासा को शान्त करने के लिए ही १५५वीं गाथा लिखी गई है; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है -