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पुण्यपापाधिकार
अथ परमार्थमोक्षहेतुं तेषां दर्शयति
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जीवादीसहहणं सम्मत्तं तेसिमधिगमो णाणं ।
रागादीपरिहरणं चरणं एसो दु मोक्खपहो । । १५५ ।।
जीवादिश्रद्धानं सम्यक्त्वं तेषामधिगमो ज्ञानम् ।
रागादिपरिहरणं चरणं एषस्तु मोक्षपथः । । १५५ ।।
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मोक्षहेतुः किल सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि । तत्र सम्यग्दर्शनं तु जीवादिश्रद्धानस्वभावेन ज्ञानस्य भवनम् । जीवादिज्ञानस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं ज्ञानम् । रागादिपरिहरणस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं चारित्रम् । तदेवं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राण्येकमेव ज्ञानस्य भवनमायातम् ।
ततो ज्ञानमेव परमार्थमोक्षहेतुः । । १५५ ।।
( हरिगीत )
जीवादि का श्रद्धान सम्यक् ज्ञान सम्यग्ज्ञान है ।
रागादि का परिहार चारित - यही मुक्तिमार्ग है ।। १५५ ।।
जीवादि पदार्थों का श्रद्धान सम्यक्त्व है, उन्हीं जीवादि पदार्थों का अधिगम (जानना) ज्ञान है और रागादि का त्याग चारित्र है - यही मोक्ष का मार्ग है ।
यह एक सीधी-सादी, सहज, सरल, सुबोध गाथा है; जिसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का स्वरूप समझाया गया है और इन तीनों की एकता को मोक्षमार्ग बताया गया है।
इस गाथा की आत्मख्याति टीका में आचार्य अमृतचन्द्र सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों को ही ज्ञान पर घटित करते हैं; क्योंकि पूर्व में यह कहते आये हैं कि ज्ञान ही मोक्ष का हेतु है। उक्त कथनों से इस कथन की संगति बैठाने का ही यह सफल प्रयास है।
उनके कथन का भाव इसप्रकार है
" वस्तुतः मोक्ष का कारण सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र है । उनमें जीवादिपदार्थों के श्रद्धानस्वभावरूप ज्ञान का होना - परिणमना सम्यग्दर्शन है, जीवादि पदार्थों के ज्ञानस्वभावरूप ज्ञान का होना - परिणमना सम्यग्ज्ञान है और रागादि के त्यागस्वभावरूप ज्ञान का होना परिणमना सम्यक्चारित्र है ।
गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
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इसप्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र - तीनों ही एक ज्ञान का ही भवन है, परिणमन है; इसलिए ज्ञान ही परमार्थतः मोक्ष का कारण है । "
विगत गाथा में सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूप ज्ञान को मोक्ष का परमार्थ हेतु बताया था; अब आगामी गाथा में यह कहते हैं कि उक्त निश्चय रत्नत्रय को छोड़कर शेष जो 'शुभाशुभभाव और बालव्रत, बालतप शुभाशुभ क्रियायें हैं, वे मोक्ष के कारण नहीं हैं ।