________________
२३७
पुण्यपापाधिकार अथ पुनरपि पुण्यकर्मपक्षपातिनः प्रतिबोधनायोपक्षिपति -
परमट्ठबाहिरा जे ते अण्णाणेण पुण्णमिच्छति । संसारगमणहे, पि मोक्खहे, अजाणता ।।१५४।।
परमार्थबाह्या ये ते अज्ञानेन पुण्यमिच्छंति ।
संसारगमनहेतुमपि मोक्षहेतुमजानंतः ।।१५४।। जो यह ज्ञानस्वरूप आत्मा ध्रुवरूप से और अचलरूप से ज्ञानस्वरूप होता हुआ - परिणमता हुआ भासित होता है, वही मोक्ष का हेतु है; क्योंकि वह स्वयमेव मोक्षस्वरूप है।
इसके अतिरिक्त अन्य जो कुछ भी है, वह बंध का हेतु है; क्योंकि वह स्वयमेव बंधस्वरूप है। इसलिए आगम में ज्ञानस्वरूप होने का, ज्ञानस्वरूप परिणमित होने का अर्थात् आत्मा की अनुभूति करने का ही विधान है। __इस कलश में यही कहा गया है कि ज्ञानानन्दस्वभावी, त्रिकालीध्रुव, अचल, निज भगवान आत्मा का अनुभव ही मुक्तिरूप है, मुक्ति का मार्ग है। इसके अतिरिक्त अन्य जो कुछ भी शुभाशुभ भाव और शुभाशुभ आचरण हैं; वे सभी बंधरूप हैं, बंध के कारण हैं। यही कारण है कि जिनागम में आत्मा के अनुभव की प्रेरणा दी गई है।
इसप्रकार इस कलश में दो टूक शब्दों में यह बात स्पष्ट कर दी गई है कि मुक्ति का मार्ग एकमात्र आत्मा का अनुभव है, आत्मानुभूति है; शेष सब शुभाशुभभाव पुण्य-पाप बंध के कारण हैं। ___ वस्तुस्थिति इतनी स्पष्ट होने पर भी अज्ञानीजन पुण्य की कामना करते हैं - इस बात को आगामी गाथा में कहते हैं। तात्पर्य यह है कि आगामी गाथा में पुण्य के पक्षपातियों को समझाया जा रहा है। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत ) परमार्थ से हैं बाह्य वे जो मोक्षमग नहीं जानते।
अज्ञान से भवगमन-कारण पुण्य को हैं चाहते ।।१५४।। जो जीव परमार्थ से बाहा हैं, वे मोक्ष के वास्तविक हेतु को न जानते हए अज्ञान से संसारगमन का हेतु होने पर भी मोक्ष का हेतु समझकर पुण्य को चाहते हैं। ___ इस गाथा में यह कहा जा रहा है कि जो जीव परमार्थ से बाह्य हैं अर्थात् आत्मा के वास्तविक स्वरूप को नहीं जानते हैं; वे जीव मुक्ति प्राप्त करने का वास्तविक उपाय तो जानते नहीं हैं और जो पुण्य संसार परिभ्रमण का कारण है, उसे ही मुक्ति का मार्ग समझकर चलने लगते हैं, उसे ही अपनाकर यह समझते हैं कि हम मुक्ति के मार्ग में चल रहे हैं - ऐसे जीवों को कभी भी मुक्ति की प्राप्ति संभव नहीं है।
इस गाथा का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है -