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________________ समयसार २३४ अथ ज्ञानं मोक्षहेतुं साधयति - परमट्ठो खलु समओ सुद्धो जो केवली मुणी णाणी। तम्हि ट्ठिदा सहावे मुणिणो पावंति णिव्वाणं ।।१५१।। परमार्थः खलु समयः शुद्धो यः केवली मुनिर्ज्ञानी। तस्मिन् स्थिता: स्वभावे मुनयः प्राप्नुवंति निर्वाणम् ।।१५१ ।। ज्ञानं हि मोक्षहेतुः, ज्ञानस्य शुभाशुभकर्मणोरबंधहेतुत्वे सति मोक्षहेतुत्वस्य तथोपपत्तेः । तत्तु सकलकर्मादिजात्यंतरविविक्तचिजातिमात्रः परमार्थ आत्मेति यावत्।। शुभभाव को ही धर्म माननेवालों को यह चिन्ता सताती है कि यदि शुभभाव का भी निषेध करेंगे तो मुनिराज अशरण हो जायेंगे, उन्हें करने के लिए कोई काम नहीं रहेगा। आत्मा के ज्ञान, ध्यान और श्रद्धानमय वीतरागभाव की खबर न होने से ही अज्ञानियों को ऐसे विकल्प उठते हैं; किन्तु शुभभाव होना कोई अपूर्व उपलब्धि नहीं है; क्योंकि शुभभाव तो इस जीव को अनेकबार हुए हैं, पर उनसे भव का अन्त नहीं आया। ___ यदि शुभभाव नहीं हुए होते तो यह मनुष्य भव ही नहीं मिलता । यह मनुष्य भव और ये अनुकूल संयोग ही यह बताते हैं कि हमने पूर्व में अनेकप्रकार के शुभभाव किये हैं; पर दु:खों का अन्त नहीं आया है। अत: अब एकबार गंभीरता से विचार करके यह निर्णय करें कि शुभभाव में धर्म नहीं है, शुभभाव कर्तव्य नहीं है; धर्म तो वीतरागभावरूप ही है और एकमात्र कर्तव्य भी वही है। वे वीतरागभाव आत्मा के आश्रय से होते हैं; अतः अपना आत्मा ही परमशरण है। जिन मुनिराजों को निज भगवान आत्मा का परमशरण प्राप्त है, उन्हें अशरण समझना हमारे अज्ञान को ही प्रदर्शित करता है। अब अगली गाथा में यह सिद्ध करते हैं कि ज्ञान ही मोक्ष का हेतु है। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत) परमार्थ है है ज्ञानमय है समय शुध मुनि केवली। इसमें रहें थिर अचल जो निर्वाण पावें वे मुनी ।।१५१।। जो निश्चय से परमार्थ (परम पदार्थ) है, समय है, शुद्ध है, केवली है, मुनि है, ज्ञानी है; उस स्वभाव में स्थित मुनिजन निर्वाण को प्राप्त होते हैं। इस गाथा का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है - "ज्ञान मोक्ष का कारण है; क्योंकि वह शुभाशुभ कर्मों के बंध का कारण नहीं है; इसकारण उसके मोक्ष का कारणपना बनता है। वह ज्ञान कर्म आदि अन्य समस्त जातियों से भिन्न चैतन्यजातिमात्र परमार्थ है, परमपदार्थ है, आत्मा है।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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