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पुण्यपापाधिकार
(स्वागता) कर्म सर्वमपि सर्वविदो यद् बंधसाधनमुशन्त्यविशेषात् । तेन सर्वमपि तत्प्रतिषिद्धं ज्ञानमेव विहितं शिवहेतुः ।।१०३।।
(शिखरिणी) निषिद्धे सर्वस्मिन् सुकृतदुरिते कर्मणि किल प्रवृत्ते नैष्कर्ये न खलु मुनयः सन्त्यशरणाः । तदा ज्ञाने ज्ञानं प्रतिचरितमेषां हि शरणं
स्वयं विन्दन्त्येते परमममृतं तत्र निरताः ।।१०४।। तात्पर्य यह है कि मिथ्यात्व संबंधी राग लेना चाहिए। शुभराग को धर्म मानना ही मिथ्यात्व है और उसी को यहाँ राग कहा गया है। ऐसे राग से संयुक्त जीव रागी है तथा वही कर्मों को बाँधता है और कर्मों से बँधता है।
इसप्रकार यह सुनिश्चित हुआ कि अशुभभावों के समान शुभभाव भी बंध के कारण होने से मोक्ष के हेतु नहीं हैं; मोक्ष का हेतु तो एकमात्र वीतरागभाव ही है, ज्ञानभाव ही है। अब आचार्य अमृतचन्द्र इसी भाव के पोषक दो कलश लिखते हैं, जिनका पद्यानुवाद इसप्रकार है
(दोहा) जिनवाणी का मर्म यह, बंध करें सब कर्म ।
मुक्तिहेतु बस एक ही, आत्मज्ञानमय धर्म ।।१०३।। सर्वज्ञदेव समस्त शुभाशुभ कर्मों को समानरूप से ही बंध का कारण कहते हैं; इसलिए यह सिद्ध हुआ कि उन्होंने समस्त शुभाशुभकर्मों का ही निषेध किया है और ज्ञान को मुक्ति का हेतु कहा है।
यहाँ एक प्रश्न उपस्थित होता है कि यदि मुक्ति के मार्ग में सभी कर्म त्याग करने योग्य हैं तो फिर मुक्तिमार्ग के पथिक मुनिराज क्या करेंगे; क्योंकि उन्हें तो करने को कुछ रहा ही नहीं ? इसी प्रश्न के उत्तर में आगामी कलश दिया गया है, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(रोला) सभी शुभाशुभभावों के निषेध होने से।
__ अशरण होंगे नहीं रमेंगे निज स्वभाव में।। अरे मुनीश्वर तो निशदिन निज में ही रहते।
निजानन्द के परमामृत में ही नित रमते ।।१०४।। सुकृत (पुण्य) और दुष्कृत (पाप) - सभी प्रकार के कर्मों का निषेध किये जाने पर निष्कर्म अवस्था में प्रवर्तमान निवृत्तिमय जीवन जीनेवाले मुनिजन कहीं अशरण नहीं हो जाते; क्योंकि निष्कर्म अवस्था में ज्ञान में आचरण करता हआ, रमण करता हुआ, परिणमन करता हुआ ज्ञान ही उन मुनिराजों की परम शरण है। वे मुनिराज स्वयं ही उस ज्ञानस्वभाव में लीन रहते हुए परमामृत का पान करते हैं, अतीन्द्रियानन्द का अनुभव करते हैं, स्वाद लेते हैं।