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पुण्यपापाधिकार
स तु युगपदेकीभावप्रवृत्तज्ञानगमनमयतया समयः, सकलनयपक्षासंकीर्णेकज्ञानतया शुद्धः, केवलचिन्मात्रवस्तुतया केवली, मननमात्रभावतया मुनिः, स्वयमेव ज्ञानतया ज्ञानी, स्वस्य भवनमात्रतया स्वभावः, स्वतश्चितो भवनमात्रतया सद्भावो वेति शब्दभेदेऽपि नच वस्तुभेदः।।१५१॥ अथ ज्ञानं विधापयति -
परमट्ठम्हि दु अठिदो जो कुणदि तवं वदं च धारेदि। तं सव्वं बालतवं बालवदं बेंति सव्वण्हू ।।१५२।। वदणियमाणि धरंता सीलाणि तहा तवं च कुव्वंता। परमट्टबाहिरा जे णिव्वाणं ते ण विंदंति ।।१५३।।
परमार्थे त्वस्थित: य: करोति तपो व्रतं च धारयति । तत्सर्वं बालतपो बालव्रतं ब्रुवन्ति सर्वज्ञाः ।।१५२।। व्रतनियमान् धारयंत: शीलानि तथा तपश्च कुर्वंतः। परमार्थबाह्या ये निर्वाणं ते न विदंति ।।१५३।।
वह ज्ञान अर्थात् आत्मा एक ही साथ एकरूप से प्रवर्तमान ज्ञान और गमन (परिणमन) स्वरूप होने से समय है, समस्त नयपक्षों से अमिश्रित एक ज्ञानस्वरूप होने से शुद्ध है, केवल चिन्मात्र वस्तुस्वरूप होने से केवली है, केवल मननमात्र (ज्ञानमात्र) भावस्वरूप होने से मुनि है, स्वयं ही ज्ञानस्वरूप होने से ज्ञानी है, स्व का भवनमात्रस्वरूप होने से स्वभाव है अथवा स्वत: चैतन्य का भवनमात्र स्वरूप होने से सद्भाव है। इसप्रकार शब्द भेद होने पर भी वस्तुभेद नहीं है।"
अब आगामी गाथाओं में यह बताया जा रहा है कि आगम में भी ज्ञान को मुक्ति का कारण बताया है तथा ज्ञान मोक्ष का कारण है और अज्ञान बंध का कारण है - यह नियम है। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत) परमार्थ से हों दूर पर तप करें व्रत धारण करें। सब बालतप हैं बालव्रत वृषभादि सब जिनवर कहें।।१५२।। व्रत नियम सब धारण करें तप शील भी पालन करें।
पर दूर हों परमार्थ से ना मुक्ति की प्राप्ति करें।।१५३।। परमार्थ में अस्थित जो जीव तप करता है और व्रत धारण करता है, उसके उन सभी तप और व्रतों को सर्वज्ञदेव बालतप और बालव्रत कहते हैं।
जो परमार्थ से बाा हैं; वे व्रत और नियमों को धारण करते हए भी, शील और तप को करते हए भी निर्वाण को प्राप्त नहीं करते।
इन गाथाओं का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है -