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पुण्यपापाधिकार
२२९ तथाहि - शुभाऽशुभो वा जीवपरिणाम: केवलाज्ञानमयत्वादेकः, तदेकत्वे सति कारणाभेदात् एकं कर्म । शुभोऽशुभो वा पुद्गलपरिणाम: केवलपुद्गलमयत्वादेकः, तदेकत्वे सति स्वभावाभेदादेकं कर्म । शुभोऽशुभो वा फलपाकः केवलपुद्गलमयत्वादेकः, तदेकत्वे सत्यनुभवाभेदादेकं कर्म । शुभाशुभौ मोक्षबन्धमार्गौ तु प्रत्येकं केवलजीवपुद्गलमयत्वादनेकौ, तदनेकत्वे सत्यपि केवलपुद्गलमयबन्धमार्गाश्रितत्वेनाश्रयाभेदादेकं कर्म ।।१४५।।
(उपजाति) हेतुस्वभावानुभवाश्रयाणां सदाप्यभेदान्न हि कर्मभेदः ।
तबंधमार्गाश्रितमेकमिष्टं स्वयं समस्तं खलु बंधहेतुः ।।१०२।। इसप्रकार यद्यपि कर्म एक ही है, तथापि कई लोगों का ऐसा पक्ष है कि कोई कर्म (पुण्य) शुभ है और कोई कर्म (पाप) अशुभ है; किन्तु उन लोगों का यह पक्ष प्रतिपक्ष सहित है, जिसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है -
जीवों के शुभ और अशुभ दोनों ही परिणाम केवल अज्ञानमय होने से एक ही हैं और उनके एक होने से कर्म के कारणों में भेद नहीं रहा; इसकारण कर्म एक ही है।
शुभ और अशुभ पुद्गल परिणाम केवल पुदगलमय होने से एक है और उसके एक होने से कर्म के स्वभाव में भेद नहीं रहा; इसकारण कर्म एक ही है।
शुभ या अशुभ फलरूप होनेवाला विपाक केवल पुद्गलमय होने से एक है और उसके एक होने से कर्म के अनुभव (स्वाद) में भेद नहीं रहा; इसकारण कर्म एक ही है।
शुभ मोक्षमार्ग केवल जीवमय है और अशुभ बंधमार्ग केवल पुद्गलमय है; इसकारण वे अनेक (भिन्न-भिन्न) हैं और उनके अनेक होने पर भी कर्म केवल पुद्गलमय बंधमार्ग के ही आश्रित होने से कर्म के आश्रय में भेद नहीं है; इसकारण कर्म एक ही है।"
इसप्रकार यहाँ पुण्य और पाप में अन्तर है - व्यवहारनय के इस पक्ष को प्रस्तुत कर निश्चयनय द्वारा उसका सयुक्ति खण्डन किया गया है।
जो बात टीका में कही गई है, अब उसी बात को कलश के माध्यम से कहते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
( रोला ) अरे पुण्य अर पाप कर्म का हेतु एक है।
आश्रय अनुभव अर स्वभाव भी सदा एक है।। अतः कर्म को एक मानना ही अभीष्ट है।
___ भले-बुरे का भेद जानना ठीक नहीं है।।१०२।। हेतु, स्वभाव, अनुभव और आश्रय - इन चारों का सदा ही अभेद होने से कर्म (पुण्यपाप) में निश्चय से भेद नहीं है। इसलिए निश्चय से समस्त कर्म (पुण्य-पाप) बंधमार्ग के आश्रित हैं और बंध के कारण हैं; इसकारण कर्म एक ही माना गया है, मानना योग्य है।