SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 249
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समयसार २३० अथोभयं कर्माविशेषेण बन्धहेतुं साधयति - सोवण्णियं पिणियलं बंधदि कालायसं पिजह पुरिसं। बंधदि एवं जीवं सुहमसुहं वा कदं कम्मं ।।१४६।। तम्हा दु कुसीलेहि य रागं मा कुणह मा व संसग्गं । साहीणो हि विणासो कुसीलसंसग्गरायेण ।।१४७।। जह णाम कोवि पुरिसो कुच्छियसीलंजणं वियाणित्ता। वज्जेदि तेण समयं संसग्गं रागकरणं च ।।१४८।। एमेव कम्मपयडीसीलसहावं च कुच्छिदं णाहूँ। वज्जंति परिहरंति य तस्संसग्गं सहावरदा ।।१४९।। सौवर्णिकमपिनिगलंबध्नातिकालायसमपि यथा पुरुषम्। बध्नात्येवं जीवं शुभमशुभं वा कृतं कर्म ।।१४६।। तस्मात्तु कुशीलाभ्यांच रागंमा कुरुत मा वा संसर्गम्। स्वाधीनो हि विनाशः कशीलसंसर्गरागेण ।।१४७।। यथा नाम कोऽपि पुरुषः कुत्सितशीलं जनं विज्ञाय । वर्जयति तेन समकं संसर्ग रागकरणं च ।।१४८।। एवमेव कर्मप्रकृतिशीलस्वभावं च कुत्सितं ज्ञात्वा । वर्जयंति परिहरंति च तत्संसर्गं स्वभावरताः ।।१४९।। अब आगामी गाथाओं में दोनों कर्म पुण्य और पाप समानरूप से बंध के कारण हैं - यह सिद्ध करते हैं। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत) ज्यों लोह बेड़ी बाँधती त्यों स्वर्ण की भी बाँधती। इस भाँति ही शुभ-अशुभ दोनों कर्म बेड़ी बाँधती ॥१४६।। दुःशील के संसर्ग से स्वाधीनता का नाश हो। दुःशील से संसर्ग एवं राग को तुम मत करो।।१४७।। जगतजन जिसतरह कुत्सितशील जन को जानकर। उस पुरुष से संसर्ग एवं राग करना त्यागते ।।१४८।। बस उसतरह ही कर्म कुत्सित शील हैं - यह जानकर । निजभावरत जन कर्म से संसर्ग को हैं त्यागते ।।१४९।। जिसप्रकार लोहे की बेड़ी के समान ही सोने की बेड़ी भी पुरुष को बाँधती है; उसीप्रकार अशुभकर्म के समान ही शुभकर्म भी जीव को बाँधता है। इसलिए इन दोनों कुशीलों के साथ राग और संसर्ग मत करो; क्योंकि कुशील के साथ राग और संसर्ग करने से स्वाधीनता का नाश होता है।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy