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समयसार
कम्ममसुहं कुसीलं सुहकम्मं चावि जाणह सुसीलं । कह तं होदि सुसीलं जं संसारं पवेसेदि । । १४५ । । कर्म अशुभं शीलं शुभकर्म चापि जानीथ सुशीलम् ।
कथं तद्भवति सुशीलं यत्संसारं प्रवेशयति । । १४५ ।।
शुभाशुभजीवपरिणामनिमित्तत्वे सति कारणभेदात्, शुभाशुभपुद्गलपरिणाममत्वे स्वभावभेदात्, शुभाशुभफलपाकत्वे सत्यनुभवभेदात्, शुभाशुभमोक्षबन्धमार्गाश्रितत्वे सत्याश्रयभेदात् चैकमपि कर्म किंचिच्छुभं, किंचिदशुभमिति केषांचित्किलपक्षः । स तु सप्रतिपक्षः ।
इसीप्रकार ये पुण्य-पाप भाव भी एक ही जाति के हैं, सगे जुड़वा भाई ही हैं, कर्म के ही भेद हैं, रागभाव के ही भेद हैं; तथापि अज्ञानी भ्रम से पुण्य को भला और पाप को बुरा समझते हैं । उनके इस भ्रम के निवारण के लिए ही यह पुण्य पाप अधिकार लिखा जा रहा है।
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अब इसी बात को गाथा के माध्यम से समझाते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ( हरिगीत )
सुशील हैं शुभ कर्म और अशुभ करम कुशील हैं।
संसार के हैं हेतु वे कैसे कहें कि सुशील हैं ? ।। १४५ ।।
अशुभ कर्म कुशील हैं और शुभकर्म सुशील हैं - ऐसा तुम जानते हो, किन्तु जो जीवों को संसार में प्रवेश करायें, वे सुशील कैसे हो सकते हैं ?
गाथा में यह कहा जा रहा है कि लौकिकजन ऐसा मानते हैं कि शुभकर्म सुशील हैं, अच्छे हैं, करने योग्य हैं और अशुभकर्म कुशील हैं, बुरे हैं, त्यागने योग्य हैं; किन्तु ज्ञानीजन कहते हैं कि जब शुभ और अशुभ - दोनों ही कर्म, कर्म होने से संसार के हेतु हैं, संसार-सागर में डुबोनेवाले हैं तो फिर उनमें से एक शुभकर्म को सुशील कैसे माना जा सकता है ? जो संसार में प्रवेश कराये, वह सुशील कैसे हो सकता है ?
इस गाथा की टीका लिखते हुए आचार्य अमृतचन्द्र पहले व्यवहारनय का पक्ष प्रस्तुत करते हुए पुण्य और पाप में चार प्रकार से अन्तर बताते हैं और अन्त में निश्चयनय का पक्ष प्रस्तुत करते हु उसका सयुक्ति निराकरण करते हैं, जो इसप्रकार है
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" किसी कर्म (पुण्य) में जीव के शुभ परिणाम निमित्त होते हैं और किसी कर्म (पाप) में जीव के अशुभ परिणाम निमित्त होते हैं; इसकारण पुण्य और पाप कर्म के कारणों में भेद है।
कोई कर्म (पुण्य) शुभ पुद्गल परिणाममय होता है और कोई कर्म (पाप) अशुभ पुद्गल परिणाममय होता है; इसकारण पुण्य और पाप कर्म के स्वभाव में भेद होता है ।
किसी कर्म (पुण्य) का शुभफलरूप विपाक होता है और किसी कर्म (पाप) का अशुभफलरूप विपाक होता है; इसकारण कर्म के अनुभव (स्वाद) में भेद होता है ।
कोई कर्म (पुण्य) शुभ मोक्षमार्ग के आश्रित है और कोई कर्म (पाप) अशुभ बंधमार्ग के आश्रित है; इसकारण कर्म के आश्रय में भी भेद है ।