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कर्ताकर्माधिकार
२१७ शुद्धात्मा पक्षातिक्रान्त है। अत: यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि पक्षातिक्रान्त का वास्तविक स्वरूप क्या है ? यही कारण है कि इस गाथा की उत्थानिका में आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं कि यदि कोई ऐसा पछे कि पक्षातिक्रान्त का क्या स्वरूप है तो उसके उत्तर में यह गाथा कही जा रही है, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
( हरिगीत ) दोनों नयों को जानते पर ना ग्रहे नयपक्ष को।
नयपक्ष से परिहीन पर निज समय से प्रतिबद्ध वे॥१४३।। यथा खलु भगवान्केवली श्रुतज्ञानावयवभूतयोर्व्यवहारनिश्चयनयपक्षयोः विश्वसाक्षितया केवलं स्वरूपमेव जानाति, न तु सततमुल्लसितसहजविमलसकलकेवलज्ञानतया नित्यं स्वयमेव विज्ञानघनभूतत्वात् श्रुतज्ञानभूमिकातिक्रांततया समस्तनयपक्षपरिग्रहदूरीभूतत्वात्कंचनापि नयपक्षं परिगृह्णाति, तथा किल यः श्रुतज्ञानावयवभूतयोर्व्यवहारनिश्चयनयपक्षयोः क्षयोपशमविजृम्भितश्रुतज्ञानात्मकविकल्पप्रत्युद्गमनेऽपि परपरिग्रहप्रतिनिवृत्तौत्सुक्यतया स्वरूपमेव केवल जानाति, न तु खरतरदृष्टिगृहीतसुनिस्तुषनित्योदितचिन्मयसमयप्रतिबद्धतया तदात्वे स्वयमेव विज्ञानघनभूतत्वात् श्रुतज्ञानात्मकसमस्तांतर्बहिर्जल्परूपविकल्पभूमिकातिक्रांततया समस्तनयपक्षपरिग्रहदूरीभूतत्वात्कंचनापि नयपक्षं परिगृह्णाति, स खलु निखिलविकल्पेभ्यः परतरः परमात्मा ज्ञानात्मा प्रत्यग्ज्योतिरात्मख्यातिरूपोऽनुभूतिमात्र: समयसारः ।।१४३।।
(स्वागता) चित्स्वभावभरभावितभावाभावभावपरमार्थतयैकम् ।
बंधपद्धतिमपास्य समस्तां चेतये समयसारमपारम् ।।१२।। नयपक्ष से रहित जीव समय से प्रतिबद्ध होता हुआ, चित्स्वरूप आत्मा का अनुभव करता हुआ दोनों ही नयों के कथनों को मात्र जानता ही है, किन्तु नयपक्ष को किंचित्मात्र भी ग्रहण नहीं करता।
इस गाथा का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है -
“जिसप्रकार केवली भगवान विश्व के साक्षीपन के कारण श्रुतज्ञान के अवयवभूत व्यवहारनिश्चयनयपक्षों के स्वरूप को मात्र जानते ही हैं, परन्तु सतत् उल्लसित सहज-विमल-सकल केवलज्ञान के द्वारा सदा स्वयमेव विज्ञानघनस्वभावी होने से, श्रुतज्ञान की भूमिका की अतिक्रान्तता के द्वारा अर्थात् श्रुतज्ञान की भूमिका को पार कर चुकने के कारण समस्त नयपक्ष के परिग्रहण से दूर हुए होने से किसी भी नयपक्ष को ग्रहण नहीं करते।
उसीप्रकार जो श्रुतज्ञानी आत्मा तत्संबंधी क्षयोपशम से उत्पन्न श्रुतज्ञानात्मक विकल्प उत्पन्न होने पर भी पर का ग्रहण करने के प्रति उत्सुकता से निवृत्त हुआ होने से श्रुतज्ञान के अवयवभूत व्यवहार-निश्चयपक्षों के स्वरूप को केवल जानता ही है; परन्तु अतितीक्ष्ण ज्ञानदृष्टि से ग्रहण किये गये निस्तुष, नित्य-उदित, चिन्मय समय (आत्मा) से प्रतिबद्धता के द्वारा अर्थात् चैतन्य आत्मा के अनुभव द्वारा अनुभव के समय स्वयमेव विज्ञानघन होने से श्रुतज्ञानात्मक समस्त अन्तर्जल्परूप तथा बहिर्जल्परूप विकल्पों की भूमिका की अतिक्रान्तता द्वारा समस्त नयपक्ष के ग्रहण से दूर हुआ होने से किसी भी नयपक्ष को ग्रहण नहीं करता हुआ; वह श्रुतज्ञानी आत्मा