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________________ समयसार २१६ इसप्रकार जिसमें बहुत से विकल्पों का जाल अपने आप उठ रहा है- ऐसी महती नयपक्षकक्षा का उल्लंघन करके ज्ञानी जीव अन्तर्बाह्य से समतारस स्वभाववाले अनुभूतिमात्र अपने भाव को प्राप्त करते हैं। ज्यों-ज्यों नयों के विस्तार में जाते हैं, त्यों-त्यों मन के विकल्प भी विस्तार को प्राप्त होते हैं, चंचलचित्त लोकालोक तक उछलने लगता है। ज्ञानी जीव इसप्रकार के नयों के पक्ष को छोड़कर, समरसी भाव को प्राप्त होकर, आत्मा के एकत्व में अटल होकर, महामोह का नाश कर, शुद्ध अनुभव के अभ्यास से निजात्मबल प्रगट करके पूर्णानन्द में लीन हो जाते हैं। (रथोद्धता ) इन्द्रजालमिदमेवमुच्छलत् पुष्कलोच्चलविकल्पवीचिभिः । यस्य विस्फुरणमेव तत्क्षणं कृत्स्नमस्यति तदस्मि चिन्महः ।।९१।। पक्षातिक्रान्तस्य किं स्वरूपमिति चेत् - दोण्ह विणयाण भणिदं जाणदिणवरंतु समयपडिबद्धो। ण दुणयपक्खं गिण्हदि किंचि विणयपक्खपरिहीणो।।१४३।। द्वयोरपि नययोर्भणितंजानाति केवलंतु समयप्रतिबद्धः। न तु नयपक्षं गृह्णाति किंचिदपि नयपक्षपरिहीनः ।।१४३।। इसप्रकार इस कलश में यही कहा गया है कि नयविकल्पों के विस्तार से उपयोग समेट कर जब आत्मा स्वभावसन्मुख होकर, निर्विकल्पज्ञानरूप परिणमित होता है; तभी अतीन्द्रिय आनन्द का अनुभव करता है। अब नय पक्ष के त्याग की भावना का अन्तिम काव्य कहते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार (दोहा) इन्द्रजाल से स्फुरें, सब विकल्प के पुंज। जो क्षणभर में लय करे, मैं हूँ वह चित्पुंज ।।९१।। विपुल, महान, चंचल विकल्परूपी तरंगों के द्वारा उड़ते हुए इस समस्त इन्द्रजाल को जिसका स्फुरण मात्र ही तत्क्षण उड़ा देता है, वह चिन्मात्र तेजपुंज मैं हूँ। ___ इस कलश में यह कहा गया है कि मैं तो वह चैतन्य का पुंज चिन्मात्रज्योति भगवान आत्मा हूँ कि जिसके ज्ञानपर्याय में स्फुरायमान होने पर समस्त विकल्पों का शमन हो जाता है; नयों का इन्द्रजाल विलीयमान हो जाता है। तात्पर्य यह है कि त्रिकालीध्रुव भगवान आत्मा के आश्रय से ही विकल्पों का जाल समाप्त होता है। अत: एकमात्र वह आत्मा ही श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र गुणों की पर्यायों द्वारा आश्रय करने योग्य है। एकमात्र श्रद्धेय, ध्येय और परमज्ञेय निज भगवान आत्मा ही है। विगत गाथाओं और कलशों में यह बात जोर देकर कहते आ रहे हैं कि समयसार स्वरूप
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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