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कर्ताकर्माधिकार
२१५ यद्यपि ये समझने के लिए अत्यन्त उपयोगी हैं, तथापि विकल्पात्मक होने से नयपक्ष ही हैं।
जो आत्मार्थी उक्त कथनों के माध्यम से यथायोग्य विवक्षापूर्वक वस्तुस्वरूप का निर्णय करके, तत्त्व का निर्णय करके, इन नयकथनों का भी पक्षपात छोड़कर, नयों का पक्षपात छोड़कर, नयकथनों के विकल्पों को तोड़कर, चित्स्वरूप निज आत्मा का अनुभव करता है; वह ही आत्मा को प्राप्त करता है; सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र को प्राप्त करता है; अतीन्द्रिय आनन्द को प्राप्त करता है; परमसुखी होता है; मुक्ति को प्राप्त करता है।
(वसन्ततिलका) स्वेच्छासमुच्छलदनल्पविकल्पजालामेवं व्यतीत्य महतीं नयपक्षकक्षाम् । अन्तर्बहिः समरसैकरसस्वभावं
स्वं भावमेकमुपयात्यनुभूतिमात्रम् ।।१०।। यद्यपि आत्मा में अनेक साधारण धर्म हैं, सामान्य धर्म हैं, तथापि चित्स्वभाव आत्मा का असाधारण धर्म है, विशेष धर्म है, प्रगट अनुभवगोचर धर्म है। इसकारण उसे मुख्य करके यहाँ जीव को बार-बार चित्स्वरूप ही कहा गया है।
उक्त बीस छन्दों में प्रत्येक के अन्तिम तीन पद तो समान ही हैं, मात्र पहले पद में परिवर्तन है। ७०वें पद में अर्थात् प्रथम पद में समागत बद्ध-अबद्ध पदों के स्थान पर क्रमश: मूढ़-अमूढ़, रागीअरागी, द्वेषी-अद्वेषी, कर्ता-अकर्ता आदि पद रखकर शेष छन्द बनाये गये हैं। अत: एक ७०वें छन्द का भाव ख्याल में आ जाने पर शेष छन्दों का भाव भी सहज ही भासित हो जाता है।
उक्त सम्पूर्ण कथन का निष्कर्ष यह है कि तत्त्वविचार के काल में उक्त नयकथनों पर विचार होता है, चिंतन होता है, मंथन होता है, तत्त्वचर्चा भी होती है; किन्तु अनुभूति के काल में अन्य विकल्पों की बात तो दूर, नयसंबंधी विकल्प भी नहीं होते; क्योंकि आत्मानुभूति निर्विकल्प दशा का नाम है। तात्पर्य यह है कि व्यवहारनय संबंधी विकल्प तो होते ही नहीं, निश्चयनय संबंधी विकल्प भी नहीं होते; क्योंकि आत्मानुभूति सर्वविकल्पों से पार ऐसी निर्विकल्प दशा है कि जिसमें किसी भी प्रकार के किसी विकल्प को, विचार को कोई स्थान ही नहीं है।
अब उपर्युक्त २० कलशों के भाव का उपसंहार करते हुए आचार्यदेव ९०वाँ कलश लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत) उठ रहा जिसमें अनन्ते विकल्पों का जाल है। वह वृहद् नयपक्षकक्षा विकट है विकराल है।। उल्लंघन कर उसे बुध अनुभूतिमय निजभाव को। हो प्राप्त अन्तर्बाह्य से समरसी एक स्वभाव को ।।१०।।