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________________ २१८ भी वस्तुत: समस्त विकल्पों से अति पर, परमात्मा, ज्ञानात्मा, प्रत्यग्ज्योति आत्मख्यातिरूप अनुभूतिमात्र समयसार है ।' "" - अब आगामी कलश में यह कहते हैं कि वह आत्मा ऐसा अनुभव करता है कि ( रोला ) मैं हूँ वह चित्पुंज कि भावाभावभावमय । परमारथ से एक सदा अविचल स्वभावमय ॥ कर्मजनित यह बंधपद्धति करूँ पार मैं। नित अनुभव यह करूँ कि चिन्मय समयसार मैं ।। ९२ ।। पक्षातिक्रान्त एव समयसार इत्यवतिष्ठते - सम्मदंसणणाणं एसो लहदि त्ति णवरि ववदेसं । सव्वणयपक्खरहिदो भणिदो जो सो समयसारो । । १४४ ।। सम्यग्दर्शनज्ञानमेष लभत इति केवलं व्यपदेशम् । सर्वनयपक्षरहितो भणितो य: स समयसारः ।। १४४ ।। समयसार चित्स्वरूप के पुंज द्वारा ही अपने उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य किये जाते हैं - ऐसा जिसका परमार्थस्वरूप है, इसकारण जो एक है - ऐसे अपार समयसार को मैं समस्त बंधपद्धति को दूर करके अर्थात् कर्मोदय से होनेवाले समस्त भावों को छोड़कर अनुभव करता हूँ। यहाँ ‘चित्स्वभावभर' पद का प्रयोग है, जो यह बताता है कि यह भगवान आत्मा चित्स्वभाव से भरा हुआ है तथा ‘भावितभावाभावभाव' पद में भाव - अभाव-भाव में भाव माने उत्पाद, अभाव माने व्यय और भाव माने ध्रौव्य होता है। तात्पर्य यह है कि पहले भाव का अर्थ उत्पाद और दूसरे भाव का अर्थ ध्रौव्य लेना है । भावित का अर्थ है कि ये उत्पाद - व्यय - ध्रौव्य चित्स्वभाव के द्वारा ही भावित हैं, होते हैं । द्रव्य होने से भगवान आत्मा का परमार्थस्वरूप; उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त होना है और इसीकारण भगवान आत्मा एक है। ऐसा यह अपार समयसारस्वरूप भगवान आत्मा मैं स्वयं ही हूँ । ऐसा अनुभव करने से ही सम्पूर्ण बंधपद्धति से निवृत्ति होती है। इसकारण मैं समस्त बंधपद्धति का अभाव करता हुआ ऐसा अनुभव करता हूँ कि यह चैतन्यस्वरूप परमार्थ आत्मा मैं ही हूँ । आगामी गाथा कर्ताकर्माधिकार की अन्तिम गाथा है। इसमें पक्षातिक्रान्त संबंधी सम्पूर्ण प्रकरण का समापन है, निष्कर्ष दिया गया है । यही कारण है कि आत्मख्याति में इस गाथा की उत्थानिका इसप्रकार दी गई है - "यह सुनिश्चित होता है कि पक्षातिक्रान्त ही समयसार है । " पक्षातिक्रान्त को समयसार कहनेवाली गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है। - ( हरिगीत )
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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