________________
समयसार
( अनुष्टुभ् ) अनन्तधर्मणस्तत्त्वं पश्यंती प्रत्यगात्मनः ।
अनेकांतमयी मूर्तिर्नित्यमेव प्रकाशताम् ।।२।। यहाँ जिस समयसाररूप भगवान आत्मा को नमस्कार किया गया है, वह सर्वज्ञपर्याय सहित भगवान आत्मा की बात नहीं है, अपितु सर्वज्ञस्वभावी त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा की बात है।
इसप्रकार यहाँ यह कहा गया है कि मैं उस समयसाररूप शुद्धात्मा को नमस्कार करता हूँ,जो सत्तास्वरूप है, चैतन्यस्वभावी है, सर्वदर्शी एवं सर्वज्ञत्वादि शक्तियों से सम्पन्न है और स्वानुभूति द्वारा प्रकाशित होता है।
इसप्रकार देवाधिदेव के रूप में समयसाररूप भगवान आत्मा का स्मरण कर आचार्य अमृतचन्द्र अब ‘अनेकान्तमयी जिनवाणी नित्य प्रकाशित रहे, भव्यजीवों को मुक्ति का मार्ग दिखाती रहे' - ऐसी मंगल कामना करते हुए दूसरा कलश लिखते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(सोरठा ) देखे पर से भिन्न, अगणित गुणमय आतमा।
अनेकान्तमयमूर्ति, सदा प्रकाशित ही रहे ।।२।। पर-पदार्थों, उनके गुण-पर्यायरूप भावों एवं पर-पदार्थों के निमित्त से होनेवाले अपने विकारों से कथंचित् भिन्न एकाकार अनन्तधर्मात्मक निज आत्मतत्त्व को देखनेवाली, जाननेवाली, प्रकाशित करनेवाली, अनेकान्तमयी मूर्ति सदा ही प्रकाशित रहे, जयवंत वर्ते।
सर्व परवस्तुओं से भिन्न, नैमित्तिक परभावों से भिन्न व अपने ही स्वरूप में तन्मय आत्मा प्रत्यगात्मा कहलाता है। यहाँ अनेकान्तमयी सरस्वती को उक्त प्रत्यगात्मा की प्रतिपादक कहा गया है और उसके नित्य प्रकाशित रहने की कामना की गई है।
तात्पर्य यह है कि प्रत्यगात्मारूप निज भगवान आत्मा की चर्चा-वार्ता, उसके स्वरूप का प्रतिपादन निरन्तर होते रहना चाहिए; क्योंकि इस प्रत्यगात्मा के स्वरूप की देशना ही आत्मार्थी जीवों को मुक्तिमार्ग में लगाने में निमित्त होती है। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में देशनालब्धि का होना भी अनिवार्य है। उस देशनालब्धि का साधन सदा उपलब्ध रहे - इस आशीर्वादरूप जिनवाणी की वंदना में यही भावना व्यक्त हुई है।
वैसे तो विद्यमान बीस तीर्थंकरों के माध्यम से अढ़ाई द्वीप में निरन्तर ही इसप्रकार की देशना उपलब्ध रहती है, अतः अनेकान्तमयी मूर्ति नित्य प्रकाशित ही है; तथापि हम-तुम जैसे भव्यजीवों को भी प्रत्यगात्मा का उपदेश निरन्तर प्राप्त होता रहे, वह प्रत्यगात्मा हमारे ज्ञान का ज्ञेय निरन्तर बना रहे - आचार्यदेव ने हम सबको यही मंगल-आशीर्वाद दिया है।
वीतरागी सर्वज्ञ परमात्मा की शुद्धात्मा की प्रतिपादक वीतरागवाणी हम सभी को निरन्तर प्राप्त होती रहे - इस मंगल कामना के बाद अब आचार्य अमृतचन्द्र इस आत्मख्याति टीका के प्रणयन का प्रयोजन स्पष्ट करते हुए कलश लिखते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है -