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पूर्वरंग
(अनुष्टुभ् ) नमः समयसाराय स्वानुभूत्या चकासते। चित्स्वभावाय भावाय सर्वभावांतरच्छिदे ।।१।।
मंगलाचरण
(दोहा) देहादिक से भिन्न जो, पर्यायों से पार।
ज्ञानस्वभावी आतमा, दे आनंद अपार ।। भगवान आत्मा के स्वरूप का प्रतिपादक ग्रन्थाधिराज समयसार जिनागम का अजोड़ रत्न है, सम्पूर्ण जिनागम का सिरमौर है। आचार्य अमृतचन्द्र इसे जगत का अद्वितीय अक्षय चक्षु कहते हैं
और कहते हैं कि जगत में इससे महान और कुछ भी नहीं है। 'इदमेकं जगच्चक्षुरक्षयम्', 'न खलु समयसारादुत्तरं किंचिदस्ति' - आचार्य अमृतचन्द्र की उक्त सूक्तियाँ समयसार की महिमा बताने के लिए पर्याप्त हैं।
समयसार का समापन करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द स्वयं लिखते हैं कि जो आत्मा इस समयसार नामक शास्त्र को पढ़कर, इसमें प्रतिपादित आत्मवस्तु को अर्थ व तत्त्व से जानकर उस आत्मवस्तु में स्थित होता है, अपने को स्थापित करता है; वह आत्मा उत्तम सुख को प्राप्त करता है अर्थात् अनन्त अतीन्द्रिय आनन्द को प्राप्त करता है।
इस ग्रन्थाधिराज का मूल प्रतिपाद्य नवतत्त्वों के निरूपण के माध्यम से नवतत्त्वों में छिपी हुई परमशुद्धनिश्चयनय की विषयभूत वह आत्मज्योति है, जिसके आश्रय से निश्चय सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्र की प्राप्ति होती है। समयसार की आत्मख्याति टीका के मंगलाचरण का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(दोहा) निज अनुभूति से प्रगट, चित्स्वभाव चिद्रूप।
सकलज्ञेय-ज्ञायक नमौं, समयसार सद्रूप ।।१।। स्वानुभूति से प्रकाशित, चैतन्यस्वभावी, सर्वपदार्थों को जाननेवाले सत्तास्वरूप समयसार को नमस्कार हो। ___यहाँ जिस समयसार अर्थात् शुद्धात्मा को नमस्कार किया गया है, उसे चार विशेषणों से समझाया गया है -
(१) भावाय (२) चित्स्वभावाय (३) सर्वभावान्तरच्छिदे एवं (४) स्वानुभूत्या चकासते ।
उक्त चार विशेषणों से समयसार के द्रव्य, गुण और पर्याय स्वभाव को समझाया गया है। 'भाव' कहकर द्रव्य, 'चित्स्वभाव' कहकर गुण और 'सर्वभावान्तरच्छिदे' तथा 'स्वानुभूत्या चकासते' कहकर पर्यायस्वभाव को स्पष्ट किया गया है; क्योंकि मोह के नाश का उपाय द्रव्य-गुण-पर्याय से निज भगवान आत्मा को जानना ही है। १. आत्मख्याति टीका, कलश २४५ २. आत्मख्याति टीका, कलश २४४