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________________ पूर्वरंग (मालिनी) परपरिणतिहेतोर्मोहनाम्नोऽनुभावादविरतमनुभाव्यव्याप्तिकल्माषितायाः। मम परमविशुद्धिः शुद्धचिन्मात्रमूर्तेर्भवतु समयसारव्याख्ययैवानुभूते: ।।३।। (रोला) यद्यपि मैं तो शुद्धमात्र चैतन्यमूर्ति हूँ। फिर भी परिणति मलिन हुई है मोहोदय से ।। परमविशुद्धि को पावे वह परिणति मेरी।। समयसार की आत्मख्याति नामक व्याख्या से ।।३।। यद्यपि मैं तो शुद्ध चिन्मात्रमूर्ति भगवान आत्मा हूँ; तथापि परपरिणति का मूल कारण जो मोह नामक कर्म है, उसके उदय का निमित्त पाकर मेरी परिणति वर्तमान में मैली हो रही है, कल्माषित हो रही है। समयसार की इस आत्मख्याति नामक व्याख्या से, टीका से मेरी वह परिणति परमविशुद्धि को प्राप्त हो - यही मेरी मंगल भावना है। आचार्यदेव की परिणति तीन कषाय का अभाव होने से विशुद्ध तो है ही, पर अभी ऐसी परमविशुद्धि नहीं है कि जिसके फल में केवलज्ञान की प्राप्ति हो; अभी संज्वलन कषाय संबंधी मलिनता विद्यमान है। यही कारण है कि वे विशुद्धि की नहीं, परमविशुद्धि की कामना करते हैं। अन्य किसी भी प्रकार की लौकिक कामना आचार्यदेव के हृदय में नहीं है, जिसकी प्रेरणा से वे यह टीका लिखने को उद्यत हुए हों। उनकी तो एकमात्र यही कामना है कि जब उनका उपयोग शुभभाव में रहे, तब वे एकमात्र समयसार की विषयवस्तु का ही चिन्तन-मनन करते रहें। इस छन्द में प्रकारान्तर से आचार्यदेव ने समयसार की व्याख्या लिखने का संकल्प भी व्यक्त किया है, प्रतिज्ञा भी की है और यह भी स्पष्ट कर दिया है कि मेरा अपनापन तो अन्तर में विराजमान शुद्धतत्त्व में ही है। इसीलिए वे जोर देकर कहते हैं कि मैं तो शुद्धचैतन्यमात्रमूर्ति हूँ, मुझमें तो कुछ विकृति है ही नहीं। हाँ, पर्याय में पर्यायगत योग्यता के कारण एवं मोहोदय के निमित्त से कुछ मलिनता है; वह भी इस समयसार की व्याख्या से समाप्त हो जावे; क्योंकि व्याख्या के काल में मेरा जोर तो त्रिकाली स्वभाव पर ही रहना है। आचार्यदेव के हृदय में कोई पापभावरूप मलिनता तो है नहीं: यही टीका लिखने, उपदेश देने आदि शुभभावरूप मलिनता ही है और वे उसका ही नाश चाहते हैं तथा वे अच्छी तरह जानते हैं कि टीका करने के भाव से, टीका करने के भावरूप मलिनता समाप्त नहीं होगी; पर वे यह भी जानते हैं कि अन्तर में तीन कषाय के अभावरूप निर्मलता है, मिथ्यात्व के अभाव से पर में से अपनापन टूट गया है और अपने त्रिकाली ध्रुव आत्मा में ही अपनापन आ गया है। उसके बल से, आत्मा की रुचि की तीव्रता से, निश्चित ही इस विकल्प का भी नाश होगा और उपयोग शुद्धोपयोग में चला जायेगा।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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