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________________ समयसार है। वह तो थोड़ी-बहुत शुभक्रिया और शुभभाव करके ही सन्तुष्ट है, उसी में धर्म मान रहा जबतक वह अपने इस अज्ञानभाव को नहीं छोड़ेगा; मिथ्यात्वभाव को नहीं छोड़ेगा; तबतक बंध का निरोध नहीं होगा, संवर नहीं होगा, निर्जरा नहीं होगी और इनके नहीं होने से उसे मोक्ष भी नहीं होगा। २०० जो बात विगत गाथाओं तथा कलशों में कही गई है, अब आगामी गाथाओं में उसी बात को दृष्टान्त द्वारा समझाते हैं। मूल गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है - अथैतदेव दृष्टान्तेन समर्थयते - कणयमया भावादो जायंते कुण्डलादओ भावा । अयमयया भावादो जह जायंते दु कडयादी ।। १३० ।। अण्णाणमया भावा अणाणिणो बहुविहा वि जायंते । णाणिस्स दु णाणमया सव्वे भावा तहा होंति ।। १३१ । । कनकमयाद्भावाज्जायंते कुंडलादयो भावाः । अयोमयकाद्भावाद्यथा जायंते तु कटकादयः ।। १३० ।। अज्ञानमया भावा अज्ञानिनो बहुविधा अपि जायते । ज्ञानिनस्तु ज्ञानमयाः सर्वे भावास्तथा भवंति । । १३१ ।। यथा खलु पुद्गलस्य स्वयं परिणामस्वभावत्वे सत्यपि कारणानुविधायित्वात्कार्याणां जांबूनदमयाद्भावाज्जांबूनदजातिमनतिवर्तमाना जांबूनदकुण्डलादय एव भावा भवेयुः, न पुन: कालायसवलयादय:, कालायसमयाद्भावाच्च कालायसजातिमनतिवर्तमानाः कालायसवलयादय एव भवेयुः, न पुनर्जांबूनदकुण्डलादयः । तथा जीवस्य स्वयं परिणामस्वभावत्वे सत्यपि कारणानुविधायित्वादेव कार्याणां अज्ञानिनः ( हरिगीत ) स्वर्णनिर्मित कुण्डलादि स्वर्णमय ही हों सदा । लोहनिर्मित कटक आदि लोहमय ही हों सदा ।। १३० । इस ही तरह अज्ञानियों के भाव अज्ञानमय । इस ही तरह सब भाव हों सद्ज्ञानियों के ज्ञानमय ।।१३१।। जिसप्रकार स्वर्णमयभाव में से स्वर्णमय कुण्डल आदि बनते हैं और लोहमय भाव में से लोहमय कड़ा आदि बनते हैं। उसीप्रकार अज्ञानियों के अनेकप्रकार के अज्ञानमय भाव होते हैं और ज्ञानियों के सभी भाव ज्ञानमय होते हैं। - आत्मख्याति में आचार्य अमृतचन्द्र उक्त गाथाओं के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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