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कर्ताकर्माधिकार
“जिसप्रकार पुद्गल के स्वयं परिणामस्वभावी होने पर भी 'कारण के अनुसार ही कार्य होते हैं - इस नियम के अनुसार स्वर्णपदार्थ से स्वर्णमय ही कुण्डलादि बनते हैं, लोहमय कड़ा आदि नहीं बनते; क्योंकि स्वर्ण स्वर्णजाति का उल्लंघन नहीं करता तथा लोह पदार्थ से लोहमय कड़ा आदि बनते हैं, स्वर्णमय कुण्डलादि नहीं; क्योंकि लोह लोहजाति का उल्लंघन नहीं करता।
इसीप्रकार जीव के स्वयं परिणामस्वभावी होने पर भी कारण के अनुसार ही कार्य होते हैं'
स्वयमज्ञानमयाभावादज्ञानजातिमनतिवर्तमाना विविधा अप्यज्ञानमया एव भावा भवेयुः, न पुनर्ज्ञानमया, ज्ञानिनश्च स्वयं ज्ञानमयाद्भावाज्ज्ञानजातिमनतिवर्तमाना: सर्वे ज्ञानमया एव भावा भवेयः, न पुनरज्ञानमयाः ।।१३०-१३१ ।।
(अनुष्टुभ् ) अज्ञानमयभावानामज्ञानी व्याप्य भूमिकाम् ।
द्रव्यकर्मनिमित्तानां भावानामेति हेतुताम् ।।६८।। अण्णाणस्स स उदओ जा जीवाणं अतच्चउवलद्धी। मिच्छत्तस्स दु उदओ जीवस्स असदहाणत्तं ।।१३२।। उदओ असंजमस्स दु जं जीवाणं हवेइ अविरमणं । जो दु कलुसोवओगो जीवाणं सो कसाउदओ।।१३३।। तं जाण जोग उदयं जो जीवाणं तु चिट्ठउच्छाहो। सोहणमसोहण वा कायव्वो विरदिभावो वा ।।१३४।। एदेसु हेदुभूदेसु कम्मइयवग्गणागदं जं तु। परिणमदे अट्ठविहं णाणावरणादिभावेहिं ।।१३५।। तं खलु जीवणिबद्धं कम्मइयवग्गणागदं जइया ।
तइया दु होदि हेदू जीवो परिणामभावाणं ।।१३६।। - इस नियम के अनुसार अज्ञानी के अनेकप्रकार के अज्ञानमय ही भाव होते हैं, ज्ञानमयभाव नहीं होते; क्योंकि अज्ञानमयभाव अज्ञानजाति का उल्लंघन नहीं करते तथा ज्ञानमयभाववाले ज्ञानी के अनेकप्रकार के ज्ञानमय ही भाव होते हैं, अज्ञानमय भाव नहीं होते; क्योंकि ज्ञानमयभाव ज्ञानजाति का उल्लंघन नहीं करते।"
इसप्रकार इन गाथाओं में भी उदाहरण के माध्यम से यही सिद्ध किया गया है कि ज्ञानी के सभी भाव ज्ञानमय होते हैं और अज्ञानी के सभी भाव अज्ञानमय होते हैं अथवा ज्ञानी अपने ज्ञानमयभावों का कर्ता-भोक्ता है और अज्ञानी अज्ञानमय भावों का कर्ता-भोक्ता है।
अब आगामी गाथाओं की सूचना देनेवाला कलशरूपकाव्य कहते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है