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कर्ताकर्माधिकार
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क्योंकि अज्ञानमय भाव में से अज्ञानमय भाव ही उत्पन्न होते हैं; इसलिए अज्ञानियों के सभी भाव अज्ञानमय ही होते हैं।
इन गाथाओं का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार व्यक्त किया गया है
“वास्तव में अज्ञानमय भाव में से जो कोई भी भाव होता है, वह सभी अज्ञानमयता का उल्लंघन न करता हुआ, अज्ञानमय ही होता है; इसलिए अज्ञानियों के सभी भाव अज्ञानमय ही होते हैं और ज्ञानमय भाव में से जो कोई भी भाव होता है, वह सब ही ज्ञानमयता का उल्लंघन न करता हुआ, ज्ञानमय ही होता है; इसलिए ज्ञानियों के सब ही भाव ज्ञानमय होते हैं । " ( अनुष्टुभ् )
ज्ञानिनो ज्ञाननिर्वृत्ता: सर्वे भावा भवन्ति हि । सर्वेऽप्यज्ञाननिर्वृत्ता भवन्त्यज्ञानिनस्तु ते ।। ६७।।
इन गाथाओं की टीका के बाद आचार्य अमृतचन्द्र जो छन्द (कलश) लिखते हैं, उसमें भी इसी भाव को दुहराया गया है, इसी भाव की पुष्टि की गई है। उस छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ( रोला )
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ज्ञानी के सब भाव ज्ञान से बने हुए हैं। अज्ञानी के सभी भाव अज्ञानमयी हैं । उपादान के ही समान कारज होते हैं ।
जौ बौने पर जौ ही तो पैदा होते हैं ।। ६७ ॥
ज्ञानी के समस्त भाव ज्ञान से रचित होते हैं और अज्ञानी के सभी भाव अज्ञान से रचित होते हैं।
इन गाथाओं और इस कलश का भाव यह है कि चतुर्थादि गुणस्थानवर्ती ज्ञानी जीवों के चारित्र कमजोरी से जो भूमिकानुसार रागादिभावों का परिणमन पाया जाता है, वह परिणमन भी ज्ञानमयभाव ही कहलाता है; क्योंकि ज्ञानी जीव के उन रागादि के होने पर भी अनन्तसंसार को करनेवाला मिथ्यात्वादि का बंध नहीं होता । चारित्रमोहोदय संबंधी जो भी बंध होता है, वह अत्यन्त अल्प होता है, अनन्त संसार का कारण नहीं होता। इसकारण यहाँ उसे बंध में गिनते ही नहीं हैं।
इसप्रकार विगत कलश में जो प्रश्न उठाया गया था, उसका उत्तर इस कलश में दे दिया गया । विगत कलश में कहा था कि 'ज्ञानवंत के भोग निर्जरा हेतु हैं' और अज्ञानी को वे ही भोग बंध करते हैं। इसका क्या कारण है ?
इस कलश में उक्त प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि अज्ञानी का उन भोगों में एकत्व, ममत्व, कर्तृत्व और भोक्तृत्व है; इसकारण अज्ञानी को बंध होता है और ज्ञानी का उनमें एकत्व, ममत्व, कर्तृत्व और भोक्तृत्व नहीं है; इसकारण ज्ञानी को उनसे बंध नहीं होता ।
इस सबका कुल मिलाकर तात्पर्य यह हुआ कि बंध का मूल कारण शुभाशुभ क्रिया नहीं; अपितु अज्ञानभाव है, मिथ्यात्वभाव है । अत: हमें इस अज्ञानभाव, मिथ्यात्वभाव से बचने का प्रयास करना चाहिए; किन्तु परपदार्थों में मुग्ध इस जगत का ध्यान इस ओर है ही नहीं ।