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पर परिणमावे किसतरह वह अपरिणामी वस्तु को ।। १२३ ।। यदि स्वयं ही क्रोधादि में परिणमित हो यह आतमा । मिथ्या रही यह बात उसको परिणमावे कर्म जड़ ।। १२४ । क्रोधोपयोगी क्रोध है मानोपयोगी मान है । मायोपयोगी माया है लोभोपयोगी लोभ है ।। १२५ ।
समयसार
यदि कर्मणि स्वयमबद्धः सन् जीवः क्रोधादिभावेन स्वयमेव न परिणमेत तदा स किलापरिणाम्येव स्यात् । तथा सति संसाराभाव: ।
अथ पुद्गलकर्म क्रोधादि जीवं क्रोधादिभावेन परिणामयति ततो न संसाराभाव इति तर्कः । किं स्वयमपरिणममानं परिणममानं वा पुद्गलकर्म क्रोधादि जीवं क्रोधादिभावेन परिणामयेत् ?
न तावत्स्वयमपरिणममानः परेण परिणमयितुं पार्येत, न हि स्वतोऽसति शक्तिः कर्तुमन्येन पार्यते । स्वयं परिणममानस्तु न परं परिणमयितारमपेक्षेत, न हि वस्तुशक्तय: परमपेक्षते ।
ततो जीव: परिणामस्वभाव: स्वयमेवास्तु ।
'यह जीव कर्म में स्वयं नहीं बँधता और क्रोधादिभाव में स्वयमेव नहीं परिणमता' - यदि ऐसा तेरा मत है तो यह जीव द्रव्य अपरिणामी सिद्ध होगा ।
जीव द्रव्य स्वयं क्रोधादिभावरूप परिणमित नहीं होने से संसार का अभाव सिद्ध होता है अथवा सांख्यमत का प्रसंग आता है।
यदि ऐसा माना जाये कि क्रोधरूप पुद्गलकर्म जीव को क्रोधरूप परिणमन कराता है तो यह प्रश्न उपस्थित होता है कि स्वयं नहीं परिणमते हुए जीव को क्रोधकर्म, क्रोधरूप कैसे परिणमा सकता है ?
तथा यदि ऐसा माना जाये कि आत्मा स्वयं ही क्रोधभावरूप से परिणमता है तो फिर - क्रोधकर्म जीव को क्रोधरूप परिणमाता है - यह कथन मिथ्या सिद्ध होता है ।
अत: यह मानना ही ठीक है कि क्रोध में उपयुक्त आत्मा क्रोध ही है, मान में उपयुक्त आत्मा मान ही है और माया में उपयुक्त आत्मा माया ही है और लोभ में उपयुक्त आत्मा लोभ ही है। इन गाथाओं का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है
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“यदि जीव कर्म में स्वयं न बँधता हुआ क्रोधादिभावों में स्वयमेव ही परिणमित न होता हो तो वह वस्तुत: अपरिणामी ही सिद्ध होगा और ऐसा होने से संसार का अभाव सिद्ध होगा।
इससे बचने के लिए यदि यह तर्क उपस्थित किया जाये कि क्रोधादिरूप पुद्गलकर्म जीव को क्रोधादिभावरूप परिणमित करता है, इसकारण संसार का अभाव नहीं होगा।
इस तर्क पर विचार करने पर यह प्रश्न उपस्थित होता है कि क्रोधादिरूप पुद्गल कर्म स्वयं