________________
कर्ताकर्माधिकार अपरिणमते हुए जीव को क्रोधादिरूप परिणमाता है या स्वयं परिणमते हुए जीव को ?
स्वयं अपरिणमित पदार्थ को दूसरे के द्वारा परिणमित कराना शक्य नहीं है; क्योंकि वस्तु में जो शक्ति स्वत: न हो, उसे अन्य कोई नहीं कर सकता तथा स्वयं परिणमित होनेवाले पदार्थ को अन्य परिणमन करानेवाले की अपेक्षा नहीं होती; क्योंकि वस्तु की शक्तियाँ पर की अपेक्षा नहीं रखतीं। इसप्रकार दोनों ही पक्षों से यह बात सिद्ध नहीं होती कि क्रोधादिरूप पुद्गलकर्म जीव को क्रोधादिभावरूप परिणमित कराता है। अत: यही ठीक है कि जीव परिणमनस्वभाववाला स्वयं ही हो।
तथा सति गरुडध्यानपरिणत: साधक: स्वयं गरुड इवाज्ञानस्वभावक्रोधादिपरिणतोपयोग: स एव स्वयं क्रोधादि स्यात् । इति सिद्ध जीवस्य परिणामस्वभावत्वम् ।।१२१-१२५ ।।
(उपजाति) स्थितेति जीवस्य निरन्तराया स्वभावभूता परिणामशक्तिः।
तस्यां स्थितायां स करोति भावं यं स्वस्य तस्यैव भवेत्स कर्ता ॥६५।। तथा हि
जं कुणदि भावमादा कत्ता सो होदि तस्स कम्मस्स। णाणिस्स स णाणमओ अण्णाणमओ अणाणिस्स ॥१२६॥ अण्णाणमओभावो अणाणिणो कुणदि तेण कम्माणि ।
णाणमओ णाणिस्सदुण कुणदि तम्हा दुकम्माणि ॥१२७।। ऐसी स्थिति में जिसप्रकार गरुड़ के ध्यानरूप परिणमित मंत्रसाधक स्वयं गरुड़ है; उसीप्रकार अज्ञानस्वभावयुक्त क्रोधादिरूप जिसका उपयोग परिणमित हुआ है, ऐसा जीव स्वयं ही क्रोधादि है। इसप्रकार जीव का परिणामस्वभावत्व सिद्ध हुआ।"
देखो, यहाँ टीका में दो बातें बहुत साफ-साफ कही गई हैं -
(१) जिस कार्य को करने की शक्ति स्वयं में न हो तो अन्य के द्वारा वह शक्ति उत्पन्न नहीं की जा सकती।
(२) स्वयं का कार्य करने में शक्तियाँ पर की अपेक्षा नहीं रखतीं।।
इन दोनों सिद्धान्तों के माध्यम से आचार्य यह बात साफ कर देना चाहते हैं कि कार्य परिणामशक्तिरूप उपादान से ही होता है।
इसप्रकार इन गाथाओं में यह सिद्ध किया गया है कि आत्मा अपनी स्वाभाविक परिमाणशक्ति के कारण ही क्रोधादिरूप परिणमित होता है, अन्य द्रव्य के कारण नहीं है। इसी बात को आगामी कलश में व्यक्त किया गया है, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत ) आतमा में है स्वभाविक परिणमन की शक्ति जब ।