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कर्ताकर्माधिकार
१७५ कर्ता पर का जीव, जगतजनों का मोह यह ।।२।। इसप्रकार निश्चय से अपने को अज्ञानरूप या ज्ञानरूप करता हुआ यह आत्मा अपने ही भाव का कर्ता है, परभाव का कर्ता कदापि नहीं है। ___ आत्मा ज्ञानस्वरूप है, स्वयं ज्ञान ही है; अत: वह ज्ञान के अतिरिक्त और क्या करे ? आत्मा परभाव का कर्ता है - ऐसा मानना व्यवहारी जीवों का मोह है, अज्ञान है। तथा हि
ववहारेण दु आदा करेदि घडपडरधाणि दव्वाणि । करणाणि य कम्माणि य णोकम्माणीह विविहाणि ।।९८।। जदिसो परदव्वाणि य करेज्ज णियमेण तम्मओ होज्ज। जम्हा ण तम्मओ तेण सो ण तेसिं हवदि कत्ता ।।९९।। जीवो ण करेदि घडं णेव पडं णेव सेसगे दव्वे । जोगुवओगा उप्पादगा य तेसिं हवदि कत्ता ।।१००।।
व्यवहारेण त्वात्मा करोति घटपटरथान द्रव्याणि। करणानि च कर्माणि च नोकर्माणीह विविधानि ॥९८।। यदि स परद्रव्याणि च कुर्यान्नियमेन तन्मयो भवेत् । यस्मान्न तन्मयस्तेन स न तेषां भवति कर्ता ।।९९।। जीवो न करोति घटं नैव पटं नैव शेषकानि द्रव्याणि ।
योगोपयोगावुत्पादकौ च तयोर्भवति कर्ता ।।१०।। अब इसी बात को गाथाओं द्वारा स्पष्ट करते हैं, जिनका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
( हरिगीत ) व्यवहार से यह आतमा घटपटरथादिक द्रव्य का। इन्द्रियों का कर्म का नोकर्म का कर्ता कहा ।।९८।। परद्रव्यमय हो जाय यदि पर द्रव्य में कुछ भी करे। परद्रव्यमय होता नहीं बस इसलिए कर्ता नहीं ।।९९।। ना घट करे ना पट करे ना अन्य द्रव्यों को करे।
कर्ता कहा तरूपपरिणत योग अर उपयोग का ।।१०० ।। व्यवहार से आत्मा घट-पट-रथ इत्यादि वस्तुओं को, इन्द्रियों को, अनेक प्रकार के क्रोधादि द्रव्यकर्मों को और शरीरादि नोकर्मों को करता है।
यदि आत्मा निश्चय से भी परद्रव्यों को करे तो वह नियम से तन्मय (परद्रव्यमय) हो जाये, किन्तु वह तन्मय (परद्रव्यमय) नहीं है। इसलिए वह उनका कर्ता भी नहीं है।