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समयसार
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आत्मा शरीर, कर्म और कर्मोदयजन्य विकारी भावों को जानता तो है, पर करता नहीं है; उनका तमाशगीर ही रहता है, उनका तमाशा देखनेवाला ही रहता है, ज्ञाता-दृष्टा ही रहता है, कर्ता-धर्ता नहीं बनता ।
आगामी कलश
के
पद्यानुवाद में ज्ञान की महिमा बताते हुए कहते हैं
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( अनुष्टुभ् )
अज्ञानं
ज्ञानमप्येवं कुर्वन्नात्मानमंजसा । स्यात्कर्तात्मात्मभावस्य परभावस्य न क्वचित् । । ६१ ।। आत्मा ज्ञानं स्वयं ज्ञानं ज्ञानादन्यत्करोति किम् । परभावस्य कर्तात्मा मोहोऽयं व्यवहारिणाम् ।। ६२ ।।
( आडिल्ल ) उष्णोदक में उष्णता है अग्नि की ।
और शीतलता सहज ही नीर की । व्यंजनों में है नमक का क्षारपन ।
ज्ञान ही यह जानता है विज्ञजन ।। क्रोधादिक के कर्तापन को छेदता ।
अहंबुद्धि के मिथ्यातम को भेदता ।। इसी ज्ञान में प्रगटे निज शुद्धातमा ।
अपने रस से भरा हुआ यह आतमा ।। ६० ।।
गर्म पानी में अग्नि की उष्णता और पानी की शीतलता का भेद ज्ञान से ही प्रगट होता है और नमक के स्वादभेद का निरसन ज्ञान से ही होता है। तात्पर्य यह है कि ज्ञान में ही ऐसी शक्ति है कि वह साग में पड़े हुए नमक का सामान्य स्वाद जान लेता है ।
इसीप्रकार निजरस से विकसित होती हुई नित्य चैतन्यधातु और क्रोधादिभावों का परस्पर भेद भी ज्ञान ही जानता है और क्रोधादिक के कर्तृत्व को भेदता हुआ ज्ञान ही प्रगट होता है।
अब आगामी प्रकरण की सूचना देनेवाले दो कलश हैं, जिनमें कहा गया है कि आत्मा अपने भावों का ही कर्ता है, पर का नहीं । उसे पर का कर्ता कहना व्यवहारीजनों का मोह है।
उक्त कलशों के पद्यानुवाद इसप्रकार हैं।
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( सोरठा )
करे निजातम भाव, ज्ञान और अज्ञानमय । करे न पर के भाव, ज्ञानस्वभावी आतमा । । ६१ ।। ज्ञानस्वभावी जीव, करे ज्ञान से भिन्न क्या ?