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समयसार आत्मा घट को नहीं करता, पट को नहीं करता और शेष अन्य द्रव्यों को भी नहीं करता; किन्तु जीव घट-पट को करने के विकल्पवाले अपने योग और उपयोग का कर्ता अवश्य होता है। __ हाँ, यह बात अवश्य है कि यद्यपि यह आत्मा पर का कर्ता नहीं है, तथापि पर के करने के विकल्परूप परिणाम अपने उपयोग और योग का कर्ता अवश्य है।
व्यवहारिणां हि यतो यथायमात्मात्मविकल्पव्यापाराभ्यां घटादिपरद्रव्यात्मकं बहिः कर्म कुर्वन् प्रतिभाति ततस्तथा क्रोधादिपरद्रव्यात्मकंच समस्तमंत:कर्मापि करोत्यविशेषादित्यस्ति व्यामोहः।
स न सन् – यदि खल्वयमात्मा परद्रव्यात्मकं कर्म कुर्यात् तदा परिणामपरिणामिभावान्यथानुपपत्तेर्नियमेन तन्मयः स्यात्, न च द्रव्यांतरमयत्वे द्रव्योच्छेदापत्तेस्तन्मयोऽस्ति । ततो व्याप्यव्यापकभावेन न तस्य कर्तास्ति।
निमित्तनैमित्तिकभावेनापि न कर्तास्ति - यत्किल घटादि क्रोधादि वा परद्रव्यात्मकं कर्म तदयमात्मा तन्मयत्वानुषङ्गात् व्याप्यव्यापकभावेन तावन्न करोति, नित्यकर्तृत्वानुषङ्गानिमित्तनैमित्तिकभावेनापि न तत्कुर्यात् । अनित्यौ योगोपयोगावेव तत्र निमित्तत्वेन कर्तारौ । योगोपयोगयोस्त्वात्मविकल्पव्यापारयोः कदाचिदज्ञानेन करणादात्मापि कर्ताऽस्तु न परद्रव्यात्मककर्मकर्ता स्यात्॥९८-१००॥
उक्त गाथाओं का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है -
"जिसकारण से यह आत्मा अपने इच्छारूप विकल्प और हस्तादिक की क्रियारूप व्यापार के द्वारा घट आदि परद्रव्यरूप बाह्य कार्यों को करता हुआ प्रतिभासित होता है; उसीकारण से क्रोधादिकरूप परद्रव्यस्वरूप सभी अंतरंग कार्यों को भी करता है; क्योंकि घटादि और क्रोधादि दोनों ही परद्रव्यरूप हैं, परत्व की दृष्टि से इनमें कोई भेद नहीं है। - ऐसा व्यवहारीजनों का व्यामोह है।
यदि वास्तव में यह आत्मा परद्रव्यस्वरूप कार्य को करे तो परिणाम-परिणामीभाव की अन्यथा अप्राप्ति होने से नियम से तन्मय हो जाये, किन्तु ऐसा होता नहीं है; क्योंकि अन्य द्रव्य की अन्य द्रव्य में तन्मयता होने पर अन्य द्रव्यों के नाश की आपत्ति आती है। अत: एक द्रव्य दूसरे से तन्मय हो ही नहीं सकता। इसकारण आत्मा घटादिक एवं क्रोधादिक परद्रव्यरूप कार्यों का व्याप्य-व्यापक भाव से तो कर्ता है ही नहीं; क्योंकि ऐसा मानने पर तन्मयता का प्रसंग आता है।
अब यह कहते हैं कि यह आत्मा निमित्त-नैमित्तिक भाव से भी कर्ता नहीं है। निमित्त-नैमित्तिकभाव से भी आत्मा घटादिक और क्रोधादिक का कर्ता नहीं है; क्योंकि ऐसा मानने पर नित्यकर्तृत्व का प्रसंग आता है। अनित्य योग और उपयोग ही निमित्तरूप से घटादिक और क्रोधादिक के कर्ता हैं।
यद्यपि आत्मा को रागादिविकारयुक्त चैतन्यपरिणामरूप अपने विकल्पों का और आत्मप्रदेशों के चलनरूप अपने व्यापार का कर्ता तो किसी अपेक्षा कह भी सकते हैं; तथापि परद्रव्यस्वरूप