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समयसार इसप्रकार यह आत्मा अपने सविकारचैतन्यपरिणामों का कर्ता भूताविष्ट पुरुषों की भाँति और अपने सोपाधिकचैतन्यपरिणामों का कर्ता ध्यानाविष्ट पुरुषों की भाँति होता है; किन्तु पर का कर्ता तो अज्ञानी आत्मा भी कदापि नहीं होता। ___ इसप्रकार यह सुनिश्चित हो गया कि ज्ञान से परकर्तृत्व का नाश होता है - यही बात आगामी गाथा में कह रहे हैं। ततः स्थितमेतद् ज्ञानान्नश्यति कर्तृत्वम् -
एदेण दु सो कत्ता आदा णिच्छयविदूहिं परिकहिदो। एवं खलु जो जाणदि सो मुञ्चदि सव्वकत्तितं ।।९७।।
एतेन तु स कर्तात्मा निश्चयविद्भिः परिकथितः।
एवं खलु यो जानाति सो मुंचति सर्वकर्तृत्वम् ।।९७।। येनायमज्ञानात्परात्मनोरेकत्वविकल्पमात्मनः करोति तेनात्मा निश्चयतः कर्ता प्रतिभाति, यस्त्वेवं जानाति स समस्तं कर्तृत्वमुत्सृजति ततः स खल्वकर्ता प्रतिभाति ।
तथा हि - इहायमात्मा किलाज्ञानी सन्नज्ञानादासंसारप्रसिद्धेन मिलितस्वादस्वादनेन मुद्रितभेदसंवेदनशक्तिरनादित एव स्यात्, ततः परात्मानावेकत्वेन जानाति, ततः क्रोधोऽहमित्यादिविकल्पमात्मनः करोति, ततो निर्विकल्पादकृतकादेकस्माद्विज्ञानघनात्प्रभ्रष्टो बारम्बारमनेकविकल्पैः परिणमन् कर्ता प्रतिभाति।
ज्ञानी तु सन् ज्ञानात्तदादिप्रसिध्यता प्रत्येकस्वादस्वादनेनोन्मुद्रितभेदसंवेदनशक्तिः स्यात्, ततोऽनादिनिधनानवरतस्वदमाननिखिलरसांतरविविक्तात्यंतमधुरचैतन्यैकरसोऽयमात्मा भिन्नरसाः गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत) बस इसतरह कर्ता कहें परमार्थ ज्ञायक आतमा।
जो जानते यह तथ्य वे छोड़ें सकल कर्तापना ।।९७।। इसकारण निश्चयनय के विशेषज्ञ ज्ञानियों ने उक्त आत्मा को कर्ता कहा है - निश्चयनय से जो ऐसा जानता है, वह सर्वकर्तृत्व को छोड़ देता है। इस गाथा का भाव आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
“यह आत्मा अज्ञान के कारण पर के और अपने एकत्व का आत्मविकल्प करता है, इसकारण वह निश्चय से कर्ता प्रतिभासित होता है। - जो ऐसा जानता है, वह समस्त कर्तृत्व को छोड़ देता है; इसलिए वह निश्चय से अकर्ता प्रतिभासित होता है। __ अब इसी बात को विशेष समझाते हैं - अनादि से ही संकुचित भेदसंवेदनशक्तिवाला यह आत्मा अज्ञान के कारण आरम्भ से ही मिश्रित स्वाद का स्वादन होने से, पुद्गल कर्म और आत्मा का एकमेकरूप मिश्र अनुभव होने से स्व-पर को एकरूप जानता हुआ 'मैं क्रोध हूँ' - इत्यादि आत्मविकल्प करता है। इसकारण निर्विकल्प, अकृत्रिम, एक विज्ञानघनस्वभाव से