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कर्ताकर्माधिकार
१६९ हूँ' - ऐसे अध्यास के कारण मनुष्योचित मकान के द्वार में से बाहर निकलने से च्युत होता हुआ, उसप्रकार के भाव का कर्ता प्रतिभासित होता है।
उसीप्रकार यह आत्मा भी अज्ञान के कारण ज्ञेय-ज्ञायकरूप पर को और स्वयं को एक करता हुआ 'मैं परद्रव्य हूँ' - ऐसे अध्यास के कारण मन के विषयभूत किये गये धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और अन्य जीव के द्वारा अपनी शुद्ध चैतन्यधातु रुकी होने से तथा इन्द्रियों विषयीकृतरूपिपदार्थतिरोहितकेवलबोधतया मृतककलेवरमूर्च्छितपरमामृतविज्ञानघनतया च तथाविधस्य भावस्य कर्ता प्रतिभाति ।।१६।। के विषयभूत रूपीपदार्थों के द्वारा अपना केवलबोध ढका हआ होने से और मृतक शरीर के द्वारा परम-अमृतरूप विज्ञानघन मूर्च्छित हुआ होने से उसप्रकार के भाव का कर्ता प्रतिभासित होता है।" ___टीका में भूताविष्ट और ध्यानाविष्ट व्यक्ति के उदाहरण से परकर्तृत्व का मूल अज्ञान है - यह समझाया गया है।
जब किसी व्यक्ति को भूत-प्रेतादि व्यंतरबाधा हो जाती है, भूत लग जाता है तो वह ऐसी चेष्टायें करने लगता है कि जो मनुष्यों के जीवन में सामान्यत: नहीं देखी जातीं - ऐसे व्यक्ति को भूताविष्ट कहते हैं।
इसीप्रकार जो व्यक्ति ध्यान के माध्यम से स्वयं को उसरूप अनुभव करने लगता है, जो वह नहीं है तो उसे ध्यानाविष्ट कहते हैं।
टीका में ध्यानाविष्ट का स्वरूप गगनस्पर्शी सींगोंवाले भैंसे के ध्यान के माध्यम से समझाया गया है।
कोई पुरुष अपरीक्षक आचार्य के उपदेश से इसप्रकार के ध्यान में चढ़ गया कि मैं ऐसा भैंसा हूँ कि जिसके सींग इतने लम्बे हैं कि आकाश को छू लें। वह विचार करता है कि मेरे दोनों सींग आकाश के दोनों कोनों में अड़ गये हैं। अत: अब यदि मैं अपनी गर्दन को जरा भी हिलाऊँगा तो गर्दन के टूट जाने की संभावना है; क्योंकि सींग तो आकाश के कोनों में इसप्रकार अड़ गये हैं, फँस गये हैं कि उनका हिलना संभव नहीं है।
इसप्रकार के विचार में, ध्यान में वह इतना तल्लीन हो गया है, इतना एकाकार हो गया है कि वह स्वयं को सचमुच ही गगनस्पर्शी सींगोंवाला भैंसा मानने लगा है। गर्दन में अत्यन्त पीड़ा होने पर भी वह गर्दन टूट जाने के भय से अपनी गर्दन को नहीं हिलाता और मनुष्योचित मकान के दरवाजे से बाहर भी नहीं निकलता। इसप्रकार के व्यक्ति को यहाँ ध्यानाविष्ट कहा गया है।
यहाँ ज्ञेय पदार्थों में एकत्व-ममत्व और कर्तृत्व-भोक्तृत्व माननेवाले अज्ञानी के स्वरूप को ध्यानाविष्ट पुरुष के और राग-द्वेष आदि विकारीभावों में एकत्व-ममत्व एवं कर्तृत्व-भोक्तृत्व स्थापित करनेवाले अज्ञानी के स्वरूप को भूताविष्ट पुरुष के उदाहरण के माध्यम से समझाया गया है।
देखो भाई ! आचार्यदेव यहाँ कह रहे हैं कि रागादि विकारी भावों में जो तेरा अपनापन है, वह भूताविष्ट पुरुषों जैसा असद्व्यवहार है, अमानुषिक व्यवहार है और पुद्गलादि पर-पदार्थों में जो तेरा अपनापन है, वह ध्यानाविष्ट पुरुषों के समान अविवेक है, अमानुषिक आचरण है।