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कर्ताकर्माधिकार
उक्त गाथाओं में अत्यन्त सीधी और सरल भाषा में यह बात कही गई है कि यद्यपि भगवान आत्मा तो सदा ही शुद्ध-बुद्ध और निरंजन-निराकार है; तथापि अनादि से ही मोहयुक्त होने से मिथ्यादर्शन, अज्ञान और अविरतिभावरूप परिणमित हो रहा है। इसकारण वह इन भावों का कर्ता भी है, किन्तु पर का कर्ता कदापि नहीं है। हाँ, यह बात अवश्य है कि आत्मा के उक्त मिथ्यादर्शनादि भावों का निमित्त पाकर पौद्गलिक कार्मणवर्गणाएँ स्वयं कर्मरूप परिणमित होती रहती हैं। अज्ञानादेव कर्म प्रभवति एवं ज्ञानात्तु कर्म न प्रभवतीति तात्पर्यमाह -
परमप्पाणं कुव्वं अप्पाणं पिय परं करितो सो। अण्णाणमओ जीवो कम्माणं कारगो होदि ।।१२।। परमप्पाणमकुव्वं अप्पाणं पिय परं अकुव्वंतो। सो णाणमओ जीवो कम्माणमकारगो होदि ।।९३।।
परमात्मानं कुर्वन्नात्मानमपि च परं कुर्वन् सः। अज्ञानमयो जीवः कर्मणां कारको भवति ।।१२।। परमात्मानमकुर्वन्नात्मानमपि च परमकुर्वन् ।
स ज्ञानमयो जीवः कर्मणामकारको भवति ।।१३।। अयं किलाज्ञानेनात्मा परात्मनोः परस्परविशेषानिर्जाने सति परमात्मानं कुर्वन्नात्मानं च परं कुर्वन्स्वयमज्ञानमयीभूतः कर्मणां कर्ता प्रतिभाति ।
अब आगामी गाथाओं में निष्कर्ष के रूप में यह कहते हैं कि अज्ञान से कर्म उत्पन्न होते हैं और ज्ञान से कर्म उत्पन्न नहीं होते हैं अर्थात् अज्ञानीजीव कर्मों का कर्ता होता है और ज्ञानीजीव कर्मों का कर्ता नहीं होता। मूल गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
( हरिगीत ) पर को करे निजरूप जो पररूप जो निज को करे। अज्ञानमय वह आतमा पर करम का कर्ता बने ।।१२।। पररूप ना निज को करे पर को करे निज रूप ना।
अकर्ता रहे पर करम का सद्ज्ञानमय वह आतमा ।।९३।। जो पर को अपनेरूप करता है, अपने को भी पररूप करता है; वह अज्ञानी जीव कर्मों का कर्ता होता है।
जो पर को अपनेरूप नहीं करता और अपने को भी पररूप नहीं करता, वह ज्ञानी जीव कर्मों का कर्ता नहीं होता, अकर्ता ही रहता है।
उक्त गाथाओं का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है -