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________________ १६४ समयसार ___ "जबतक यह आत्मा अज्ञान से स्व और पर में परस्पर भेद नहीं जानता, तबतक पर को अपनेरूप और अपने को पररूप करता हुआ, स्वयं अज्ञानरूप होता हुआ कर्मों का कर्ता प्रतिभासित होता है; किन्तु जब यह आत्मा ज्ञान से स्व और पर में परस्पर भेद को जान लेता है, तब पर को अपनेरूप व अपने को पररूप नहीं करता हुआ, स्वयं ज्ञानरूप होता हुआ, कर्मों का अकर्ता प्रतिभासित होता है। __ तथाहि - तथाविधानुभवसंपादनसमर्थायाः रागद्वेषसुखदुःखादिरूपायाः पुद्गलपरिणामावस्थायाः शीतोष्णानुभवसंपादनसमर्थायाः शीतोष्णाया: पुद्गलपरिणामावस्थाया इव पुद्गलादभिन्नत्वेनात्मनो नित्यमेवात्यंतभिन्नायास्तन्निमित्त तथाविधानुभवस्य चात्मनोऽभिन्नत्वेन पुद्गलानित्यमेवात्यंतभिन्नस्याज्ञानात्परस्परविशेषानिर्ज्ञाने सत्येकत्वाध्यासात् शीतोष्णरूपेणेवात्मना परिणमितुमशक्येन रागद्वेषसुखदुःखादिरूपेणाज्ञानात्मना परिणममानो ज्ञानस्याज्ञानत्वं प्रकटीकुर्वन्स्वयमज्ञानमयीभूत एषोऽहं रज्ये इत्यादिविधिना रागादेः कर्मणः कर्ता प्रतिभाति । अयं किल ज्ञानादात्मा परात्मनो: परस्परविशेषनिर्ज्ञाने सति परमात्मानमकुर्वन्नात्मानं च परमकुर्वन्स्वयं ज्ञानमयीभूतः कर्मणामकर्ता प्रतिभाति । तथाहि - तथाविधानुभवसंपादनसमर्थायाः रागद्वेषसुखदुःखादिरूपायाः पुद्गलपरिणामावस्थायाः शीतोष्णानुभवसंपादनसमर्थायाः शीतोष्णायाः पुद्गलपरिणामावस्थाया इव पुद्गलादभिन्नत्वेनात्मनो नित्यमेवात्यंतभिन्नायास्तन्निमित्ततथाविधानुभवस्य चात्मनोऽभिन्नत्वेन पुद्गलान्नित्यमेवात्यंतभिन्नस्य ज्ञानात्परस्परविशेषनिर्ज्ञाने सति नानात्वविवेकाच्छीतोष्णरूपेणेवात्मना परिणमितुमशक्येन रागद्वेषसुखदुःखादिरूपेणाज्ञानात्मना मनागप्यपरिणममानो ज्ञानस्य जिसप्रकार शीत-उष्ण का अनुभव कराने में समर्थ पुद्गलपरिणाम की शीत-उष्ण अवस्था पुद्गल से अभिन्नता के कारण आत्मा से सदा ही अत्यन्त भिन्न है और उसके निमित्त से होनेवाला उसप्रकार का अनुभव आत्मा से अभिन्नता के कारण पुद्गल से सदा ही अत्यन्त भिन्न है। उसीप्रकार वैसा अनुभव कराने में समर्थ पुद्गलपरिणाम की राग-द्वेष, सुख-दुःखादि अवस्था भी पुद्गल से अभिन्नता के कारण आत्मा से सदा ही अत्यन्त भिन्न है और उसके निमित्त से होनेवाला उसप्रकार का अनुभव आत्मा से अभिन्नता के कारण पुद्गल से सदा ही अत्यन्त भिन्न है। जब यह आत्मा अज्ञान के कारण उन राग-द्वेष एवं सुख-दुःखादि का और उनके अनुभव का परस्पर विशेष नहीं जानता, तब एकत्व के अध्यास के कारण शीत-उष्ण की भाँति (जिसप्रकार शीत-उष्ण अवस्था के रूप में आत्मा का परिणमित होना अशक्य है, उसीप्रकार राग-द्वेष एवं सुख-दुःखादि अवस्था के रूप में आत्मा का परिणमित होना अशक्य है) जिसरूप आत्मा के द्वारा परिणमन करना अशक्य है - ऐसे राग-द्वेष, सुख-दुःखादिरूप अज्ञानात्मा के द्वारा परिणमित होता हुआ, परिणमित होना मानता हुआ, ज्ञान का अज्ञानत्व प्रगट करता हुआ, स्वयं अज्ञानरूप होता हुआ, 'यह मैं रागी हूँ, यह राग मैं करता हूँ' - इत्यादि विधि से रागादिकर्म
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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