________________
१६२
समयसार इन गाथाओं का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है -
“यद्यपि परमार्थ से उपयोग शुद्ध, निरंजन एवं अनादिनिधन वस्तु के सर्वस्वभूत चैतन्यमात्र भावपने से एकप्रकार का ही है; तथापि अनादि से ही अन्यवस्तुभूत मोह के साथ संयुक्तता के कारण अपने में उत्पन्न होनेवाले मिथ्यादर्शन, अज्ञान और अविरति भावरूप परिणामविकार के
परिणामविकारेषु त्रिष्वेतेषु निमित्तभूतेषु परमार्थतः शुद्धनिरंजनानादिनिधनवस्तुसर्वस्वभूतचिन्मात्रभावत्वेनैकेविधोऽप्यशुद्धसांजनानेकभावत्वमापद्यमानस्त्रिविधो भूत्वा स्वयमज्ञानीभूतः कर्तृत्वमुपढौकमानो विकारेण परिणम्य यं यं भावमात्मनः करोति तस्य तस्य किलोपयोगः कर्ता स्यात् ।
अथात्मनस्त्रिविधपरिणामविकारकर्तृत्वे सति पुद्गलद्रव्यं स्वत एव कर्मत्वेन परिणमतीत्याह
आत्मा ह्यात्मना तथापरिणमनेन यं भावं किल करोति तस्यायं कर्ता स्यात्, साधकवत् । तस्मिन्निमित्ते सति पुद्गलद्रव्यं कर्मत्वेन स्वयमेव परिणमते । __तथाहि - यथा साधकः किल तथाविधध्यानभावेनात्मना परिणमनमानो ध्यानस्य कर्ता स्यात्, तस्मिंस्तु ध्यानभावे सकलसाध्यभावानुकूलतया निमित्तमात्रीभूते सति साधकं कर्तारमन्तरेणापि स्वयमेव बाध्यन्ते विषव्याप्तयो, विडंब्यन्ते योषितो, ध्वंस्यन्ते बंधाः।
तथायमज्ञानादात्मा मिथ्यादर्शनादिभावेनात्मना परिणममानो मिथ्यादर्शनादिभावस्य कर्ता स्यात्, तस्मिंस्तु मिथ्यादर्शनादौ भावे स्वानुकूलतया निमित्तमात्रीभूते सत्यात्मानं कर्तारमंतरेणापि पुद्गलद्रव्यं मोहनीयादिकर्मत्वेन स्वयमेव परिणमते ।।९०-९१ ।। निमित्त से अशुद्ध, सांजन और अनेकपने को प्राप्त होता हुआ तीनप्रकार का होकर स्वयं अज्ञानी होता हुआ कर्तृत्व को प्राप्त, विकाररूप परिणमित होकर जिस-जिस भाव में अपनापन स्थापित करता है, उस-उस भाव का कर्ता होता है।
अब यह कहते हैं कि जब आत्मा तीनप्रकार के परिणाम विकारों को करता है; तब पुद्गल द्रव्य अपने आप ही कर्मरूप परिणमित होता है।
आत्मा जिस भाव को करता है, स्वयं ही उस भावरूप परिणमित होने से साधक की भाँति उस भाव का कर्ता होता है और आत्मा के उस भाव के निमित्तभूत होने पर पुद्गलद्रव्य कर्मरूप स्वयं परिणमित होते हैं।
जिसप्रकार मंत्र की साधना करनेवाला साधक उसप्रकार के ध्यानभाव से स्वयं ही परिणमित होता हुआ ध्यान का कर्ता होता है और वह ध्यानभाव समस्त साध्यभावों के अनुकूल होने से निमित्तमात्र होने पर साधक के कर्ता हए बिना व्याप्त विष स्वयमेव उतर जाता है, स्त्रियाँ स्वयमेव विडम्बना को प्राप्त होती हैं और बंधन स्वयमेव टूट जाते हैं।
इसीप्रकार यह आत्मा अज्ञान के कारण मिथ्यादर्शनादिक भावरूप स्वयं परिणमित होता हुआ मिथ्यादर्शनादिभाव का कर्ता होता है और वे मिथ्यादर्शनादिभाव पुद्गलद्रव्य को कर्मरूप परिणमित होने में अनुकूल होने से निमित्तमात्र होने पर आत्मा के कर्ता हए बिना पुद्गलद्रव्य मोहनीय आदि कर्मरूप स्वयमेव परिणमित होते हैं।"