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कर्ताकर्माधिकार
परिणाम दो का एक ना मिलकर नहीं दो परिणमें । परिणति दो की एक ना बस क्योंकि दोनों भिन्न हैं ।। ५३ ।। कर्ता नहीं दो एक के हों एक के दो कर्म ना । ना दो क्रियायें एक की हों क्योंकि एक अनेक ना ।। ५४ ।। ( शार्दूलविक्रीडित )
आसंसारत एव धावति परं कुर्वेऽहमित्युच्चकै - दुर्वारं ननु मोहिनामिह महाहंकाररूपं तमः । तद्भूतार्थपरिग्रहेण विलयं यद्येकवारं व्रजेत् तत्किं ज्ञानघनस्य बंधनमहो भूयो भवेदात्मनः ।। ५५ ।। ( अनुष्टुभ् )
आत्मभावान्करोत्यात्मा परभावान्सदा परः । आत्मैव ह्यात्मनो भावाः परस्य पर एव ते ।। ५६ ।।
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जो परिणमित होता है, वह कर्ता है; परिणमित होनेवाले का जो परिणाम है, वह कर्म है और जो परिणति है, वह क्रिया है। ये तीनों वस्तुरूप से भिन्न नहीं हैं।
वस्तु एक ही सदा परिणमित होती है, एक के ही सदा परिणाम होते हैं और एक की ही परिणति (क्रिया) होती है; क्योंकि अनेकरूप होने पर भी वस्तु एक ही है, भेदरूप नहीं है ।
दो द्रव्य एक होकर (मिलकर) परिणमित नहीं होते, दो द्रव्यों का मिलकर एक परिणाम नहीं होता और दो द्रव्यों की मिलकर एक परिणति (क्रिया) नहीं होती; क्योंकि जो अनेक ( भिन्न-भिन्न) हैं, वे सदा अनेक ही रहते हैं, मिलकर एक नहीं हो जाते ।
एक द्रव्य के दो कर्ता नहीं होते और एक द्रव्य के दो कर्म भी नहीं होते तथा एक द्रव्य की दो क्रियायें भी नहीं होतीं; क्योंकि एक द्रव्य अनेक द्रव्यरूप नहीं होता ।
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इसप्रकार यह सुनिश्चित है कि एक काम को दो द्रव्य मिलकर नहीं करते, दो द्रव्यों के काम को एक द्रव्य नहीं करता; प्रत्येक द्रव्य स्वयं ही अपने-अपने परिणाम और परिणति का कर्ता-धर्ता है सम्पूर्ण प्रकरण का निष्कर्ष यही है कि प्रत्येक द्रव्य अपने-अपने परिणामों और अपनी-अपनी परिणति का कर्ता-धर्ता स्वयं ही है, अन्य कोई नहीं ।
इसप्रकार इस प्रकरण को समाप्त करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र आगामी कलशों में यह भावना भा हैं कि यह अनादिकालीन अज्ञान यदि एकबार नाश को प्राप्त हो जाये तो फिर इसका उदय ही न हो । कलशों का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
( हरिगीत )
'पर को करूँ मैं' - यह अहं अत्यन्त ही दुर्वार है । यह है अखण्ड अनादि से जीवन हुआ दुःस्वार है ।। भूतार्थनय के ग्रहण से यदि प्रलय को यह प्राप्त हो ।