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समयसार
१५६ में नहीं है। वह गाथा मूलत: इसप्रकार है -
(आर्या) यः परिणमति स कर्ता यः परिणामो भवेत्तु तत्कर्म । या परिणति: क्रि या सा त्रयमपि भिन्नं न व स त त य । ।। ५ १ ।। एकः परिणमति सदा परिणामो जायते सदैकस्य। एकस्य परिणतिः स्यादनेकमप्येकमेव यतः ।।५२।। नोभौ परिणमत: खलु परिणामो नोभयोः प्रजायेत । उभयोर्न परिणति: स्वाद्यदनेकमनेकमेव सदापिशा नैकस्य हि कर्तारौ द्वौ स्तो द्वे कर्मणी न चैकस्य । नैकस्य च क्रिये द्वे एकमनेकं यतो न स्यात् ।।५४।।
पुग्गलकम्मणिमित्तं जह आदा कुणदि अप्पणो भावं । पुग्गलकम्मणिमित्तं तह वेददि अप्पणो भावं ।।
(हरिगीत) पुद्गल करम के निमित्त से निजभाव जिय आतम करे।
बस उसतरह ही आतमा निज भाव का वेदन करे।। जिसप्रकार पुद्गल कर्म के निमित्त से अपने आत्मा में होनेवाले विकारीभावों का कर्ता आत्मा है; उसीप्रकार पुद्गल कर्म के निमित्त से होनेवाले विकारीभावों का भोक्ता भी यह आत्मा है।
इस गाथा में मात्र इतनी ही बात कही गई है कि जिसप्रकार आत्मा रागादिभावों का कर्ता है; उसीप्रकार वह उनका भोक्ता भी है, किन्तु पर का कर्ता-भोक्ता वह कदापि नहीं है।
इसप्रकार यह एक प्रकरण समाप्त होता है। इसलिए आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में इस प्रकरण को समाप्त करते हुए छह कलश (छन्द) लिखते हैं, जिनमें से चार कलशों का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत ) कर्ता वही जो परिणमे परिणाम ही बस कर्म है। है परिणति ही क्रिया बस तीनों अभिन्न अखण्ड हैं ।।५१।। अनेक होकर एक है हो परिणमित बस एक ही। परिणाम हो बस एक का हो परिणति बस एक की ।।५२।।