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समयसार तो ज्ञान के घनपिण्ड आतम को कभी ना बंध हो।।५५।।
(दोहा) परभावों को पर करे, आतम आतमभाव।
आप आपके भाव हैं, पर के हैं परभाव ।।५६।। मिच्छत्तं पुण दुविहं जीवमजीवं तहेव अण्णाणं ।
अविरदि जोगो मोहो कोहादीया इमे भावा ।।८७।। पोग्गलकम्मं मिच्छं जोगो अविरदि अणाणमज्जीवं । उवओगो अण्णाणं अविरदि मिच्छं च जीवो दु ।।८८॥
मिथ्यात्वं पुनर्द्विविधं जीवोऽजीवस्तथैवाज्ञानम् । अविरतिर्योगो मोहः क्रोधाद्या इमे भावाः ।।८७।। पुद्गलकर्म मिथ्यात्वं योगोऽविरतिरज्ञानमजीवः।
उपयोगोऽज्ञानमविरतिर्मिथ्यात्वं च जीवस्तु ।।८८।। इस जगत के मोही जीवों का 'मैं पर का कर्ता हँ' - इसप्रकार का पर के कर्तत्वसंबंधी जो महा-अहंकार है, अत्यन्त दुर्निवार अनादिकालीन अहंकाररूप अज्ञानान्धकार है। अहो ! यदि वह भूतार्थनय (परमशुद्धनिश्चयनय) के विषयभूत निज भगवान आत्मा के ग्रहण से, अनुभव से एकबार प्रलय को प्राप्त हो जाये, जड़मूल से नाश हो जाये; तो फिर इस ज्ञान के घनपिण्ड आत्मा को बंध कैसे हो सकता है ?
आत्मा सदा अपने भावों को ही करता है और परभावों को सदा पर ही करते हैं; अतः जो आत्मा के भाव हैं, वे आत्मा ही हैं और जो पर के भाव हैं, वे पर ही हैं।
ध्यान रहे, उक्त कथन में ज्ञानी आत्मा को भी रागादिभावों का कर्ता-भोक्ता कहा गया है।
इसप्रकार यह सुनिश्चित हुआ कि यह आत्मा अपने विकारी-अविकारी परिणामों का कर्ताभोक्ता होने पर भी परभावों का कर्ता-भोक्ता तो कदापि नहीं है; अत: इस आत्मा को परभावों का कर्ता-भोक्ता मानना अज्ञान है, मिथ्यात्व है।
यहाँ बार-बार यह कहा जा रहा है कि एक द्रव्य को दूसरे द्रव्य का कर्ता-भोक्ता मानना अज्ञान है, मिथ्यात्व है। अत: यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि ये मिथ्यात्व, अज्ञान आदि क्या हैं ? उक्त प्रश्न का उत्तर इन गाथाओं में दिया जा रहा है। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत ) मिथ्यात्व-अविरति-जोग-मोहाज्ञान और कषाय
ये सभी जीवाजीव हैं ये सभी द्विविधप्रकार हैं।।८७।। मिथ्यात्व आदि अजीव जो वे सभी पुद्गल कर्म हैं। मिथ्यात्व आदि जीव हैं जो वे सभी उपयोग हैं।।८८।।