________________
कर्ताकर्माधिकार
१४५ होकर, उसे ग्रहण करता हुआ, उस-रूप परिणमन करता हुआ और उस-रूप उत्पन्न होता हुआ,
क्रियमाणं जानन्नपि हि ज्ञानी स्वयमंतापको भूत्वा बहिःस्थस्य परद्रव्यस्य परिणामं मृत्तिकाकलशमिवादिमध्यांतेषु व्याप्य न तं गृह्णाति न तथा परिणमति न तथोत्पद्यते च । ___ ततः प्राप्यं विकार्य निर्वयं च व्याप्यलक्षणं परद्रव्यपरिणामं कर्माकुर्वाणस्य सुखदुःखादिरूपं पदगलकर्मफलं जानतोऽपि ज्ञानिनः पदगलेन सह न कर्तकर्मभावः।
जीवपरिणामं स्वपरिणामं स्वपरिणामफलं चाजानत: पुद्गलद्रव्यस्य सह जीवेन कर्तृकर्मभाव: किं भवति किं न भवतीति चेत् - ___ यतो जीवपरिणामं स्वपरिणामं स्वपरिणामफलं चाप्यजानत्पुद्गलद्रव्यं स्वयमंतापकं भूत्वा परद्रव्यस्य परिणामं मृत्तिकाकलशमिवादिमध्यांतेषु व्याप्य न तं गृह्णाति न तथा परिणमति न तथोत्पद्यते च, किं तु प्राप्य विकार्य निर्वयं च व्याप्यलक्षणं स्वभावं कर्म स्वयमंतापक भूत्वादिमध्यांतेषु व्याप्य तमेव गृह्णाति तथैव परिणमति तथैवोत्पद्यते च । उस सुख-दुःखादिरूप पुद्गलकर्मफल को करता है। इसप्रकार पुद्गलद्रव्य के द्वारा किये जानेवाले सुख-दुःखादिरूप पुद्गलकर्म फल को ज्ञानी जानता हुआ भी, जिसप्रकार मिट्टी स्वयं घड़े में अन्तर्व्यापक होकर; आदि, मध्य और अन्त में व्याप्त होकर, घड़े को ग्रहण करती है, घड़े के रूप में परिणमित होती है और घड़े के रूप में उत्पन्न होती है; उसीप्रकार ज्ञानी स्वयं बाह्यस्थित (बाहर रहनेवाले) ऐसे परद्रव्य के परिणाम में अन्तर्व्यापक होकर, आदिमध्य-अन्त में व्याप्त होकर, उसे ग्रहण नहीं करता, उसरूप परिणमित नहीं होता और उस-रूप उत्पन्न नहीं होता। इसलिए, यद्यपि ज्ञानी सुख-दुःखादिरूप पुद्गलकर्म के फल को जानता है; तथापि प्राप्य, विकार्य और निर्वर्त्य ऐसा जो व्याप्यलक्षणवाला परद्रव्यपरिणामस्वरूप कर्म है, उसे न करनेवाले ऐसे उस ज्ञानी का पुद्गल के साथ कर्ताकर्मभाव नहीं है।
प्रश्न - यह तो ठीक कि सबको जाननेवाले ज्ञानी जीव का पुद्गलकर्म, पुद्गलकर्म के फल और स्वपरिणाम को जानते हुए जीव का पुद्गल के साथ कर्ता-कर्मभाव नहीं है; परन्तु जीव के परिणामों, अपने परिणामों और स्वपरिणामों के फल को नहीं जाननेवाले पुद्गल कर्म का जीव के साथ कर्ता-कर्मभाव है या नहीं?
उत्तर - मिट्टी स्वयं घड़े में अन्तर्व्यापक होकर, आदि-मध्य-अन्त में व्याप्त होकर, घड़े को ग्रहण करती है, घड़ेरूप परिणमित होती है और घड़ेरूप उत्पन्न होती है; उसीप्रकार जीव के परिणाम को, अपने परिणाम को और अपने परिणाम के फल को न जानता हुआ ऐसा पुद्गलद्रव्य स्वयं परद्रव्य के परिणाम में अन्तर्व्यापक होकर; आदि, मध्य और अन्त में व्याप्त होकर, उसे ग्रहण नहीं करता, उस रूप परिणमित नहीं होता और उस रूप उत्पन्न नहीं होता; परन्तु प्राप्य, विकार्य और निर्वर्त्य ऐसे जो व्याप्यलक्षणवाले अपने स्वभावरूप कर्म (कर्ता के