SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 165
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४६ समयसार कार्य) में (वह पुद्गलद्रव्य) स्वयं अन्तर्व्यापक होकर, आदि-मध्य-अन्त में व्याप्त होकर, उसी को ग्रहण करता है, उसी-रूप परिणमित होता है और उसीरूप उत्पन्न होता है। ततः प्राप्यं विकार्य निर्वयं च व्याप्यलक्षणं परद्रव्यपरिणामं कर्माकुर्वाणस्य जीवपरिणाम स्वपरिणामं स्वपरिणामफलं चाजानतः पुद्गलद्रव्यस्य जीवेन सह न कर्तृकर्मभावः ।।७६-७९ ।। इसलिए जीव के परिणाम को, अपने परिणाम को और अपने परिणाम के फल को न जानता हुआ ऐसा पुद्गलद्रव्य प्राप्य, विकार्य और निर्वर्त्य ऐसा जो व्याप्यलक्षणवाला परद्रव्यपरिणामस्वरूप कर्म है, उसे नहीं करता होने से, उस पुद्गलद्रव्य के जीव के साथ कर्ताकर्मभाव नहीं है।" जिसप्रकार ७६ से ७९ तक गाथायें थोड़े-बहुत अन्तर के साथ लगभग समान हैं; उसीप्रकार उनकी टीकायें भी थोड़े-बहत अन्तर के साथ लगभग समान ही हैं। ७६वीं गाथा की टीका के आरभ में जिस विधि से पुद्गल को पुद्गलपरिणाम का कर्ता सिद्ध किया है; उसी विधि से ७७वीं गाथा की टीका के आरंभ में आत्मा को आत्मपरिणाम का कर्ता सिद्ध किया है तथा ७८वीं गाथा में फिर पदगल को पुद्गलकर्म के सुख-दुःखरूप रूप अनन्तफल का कर्ता सिद्ध किया है। इसके बाद तीनों ही गाथाओं की टीका में यह स्पष्ट किया है कि पुद्गलकृत अनेकप्रकार के पुद्गलकर्म को, आत्मकृत आत्मपरिणामों को और पुद्गलकृत पुद्गलकर्म के अनन्तफल को जानता हुआ भी ज्ञानी आत्मा; जिसप्रकार मिट्टी घड़े में व्याप्त होकर घड़ेरूप परिणमित होती है, घड़े के रूप में उत्पन्न होती है और घड़े को प्राप्त होती है; उसप्रकार ज्ञानी आत्मा, आत्मा से भिन्न परपदार्थों को न तो प्राप्त करता है, न उत्पन्न करता है और न उनरूप परिणमित ही होता है। इसप्रकार तीनों ही गाथाओं में - 'ज्ञानी जीव किसी भी रूप में पर का कर्ता नहीं है' - यह सिद्ध किया गया है। इसप्रकार निष्कर्ष के रूप में यह सुनिश्चित हुआ कि वर्णादि और रागादि के २९ प्रकार के भेदों में विभक्त पुद्गल द्रव्य; स्वयं के प्राप्य, विकार्य और निर्वर्त्य रूप परिणमन के आदि, मध्य और अन्त में व्याप्त होकर; उस परिणमन को स्वयं ही करता है; उसे जाननेवाला जीव, उसे जानते हए भी उसके परिणमन का कर्ता नहीं है। जिसप्रकार अनेकप्रकार के पुद्गलकर्मों; अपने परिणामों और पुद्गलकर्म के सुख-दुःखादि रूप अनन्त फलों को जाननेवाला ज्ञानी उक्त २९ प्रकार के पौद्गलिक भावों का कर्ता नहीं है; उसीप्रकार वह उनका भोक्ता भी नहीं है, स्वामी भी नहीं है - यह भी जान लेना। ७६ से ७८वीं गाथा तक तो यह कहा गया कि अनेकप्रकार के पुद्गलकर्म, अपने परिणाम और पुद्गलकर्म के अनन्तफलों को जानता हुआ जीव पौद्गलिक भावों का कर्ता नहीं है और ७९वीं गाथा में उन्हीं तर्क और युक्तियों के आधार पर यह कहा गया है कि अनेकप्रकार के पुद्गलकर्म, आत्मा के परिणाम और पुद्गलकर्म के अनन्तफलों को नहीं जाननेवाला पुद्गल भी आत्मा के
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy