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________________ १४४ करता हुआ, उस रूप परिणमन करता हुआ और उसरूप उत्पन्न होता हुआ; उस पुद्गलपरिणाम समयसार हि ज्ञानी स्वयमंतर्व्यापको भूत्वा बहिःस्थस्य परद्रव्यस्य परिणामं मृत्तिकाकलशमिवादिमध्यांतेषु व्याप्य न तं गृह्णाति न तथा परिणमति न तथोत्पद्यते च ततः प्राप्यं विकार्यं निर्वर्त्यं च व्याप्यलक्षणं परद्रव्यपरिणामं कर्माकुर्वाणस्य पुद्गलकर्म जानतोऽपि ज्ञानिन: पुद्गलेन सह न कर्तृकर्मभावः । यतो यं प्राप्यं विकार्यं निर्वर्त्यं च व्याप्यलक्षणमात्मपरिणामं कर्म आत्मना स्वयमंतर्व्यापकेन भूत्वादिमध्यांतेषु व्याप्य तं गृह्णता तथा परिणमता तथोत्पद्यमानेन च क्रियमाणं जानन्नपि हि ज्ञानी स्वयमंतर्व्यापको भूत्वा बहिःस्थस्य परद्रव्यस्य परिणामं मृत्तिकाकलशमिवादिमध्यांतेषु व्याप्य न तं गृह्णाति न तथा परिणमति न तथोत्पद्यते च ततः प्राप्यं विकार्यं निर्वर्त्यं च व्याप्यलक्षणं परद्रव्यपरिणामं कर्माकुर्वाणस्य स्वपरिणामं जानतोऽपि ज्ञानिन: पुद्गलेन सह न कर्तृकर्मभावः । यतो यं प्राप्यं विकार्यं निर्वर्त्यं च व्याप्यलक्षणं सुखदुःखादिरूपं पुद्गलकर्मफलं कर्म पुद्गलद्रव्येण स्वयमंतर्व्यापकेन भूत्वादिमध्यांतेषु व्याप्य तद् गृह्णता तथा परिणमता तथोत्पद्यमानेन च को करता है । इसप्रकार पुद्गल द्रव्य से किये जानेवाले पुद्गलपरिणाम को जानता हुआ भी ज्ञानी; - जिसप्रकार मिट्टी स्वयं घड़े में अन्तर्व्यापक होकर; आदि, मध्य और अन्त में व्याप्त होकर को ग्रहण करती है, घड़े के रूप में परिणमित होती है और घड़े के रूप में उत्पन्न होती है; उसप्रकार ज्ञानी स्वयं बाह्यस्थित परद्रव्य के परिणाम में अन्तर्व्यापक होकर; आदि, मध्य और अन्त में व्याप्त होकर, उसे ग्रहण नहीं करता, उसरूप परिणमित नहीं होता और उसरूप उत्पन्न नहीं होता । इसलिए यद्यपि ज्ञानी पुद्गलकर्म को जानता है; तथापि प्राप्य, विकार्य और निर्वर्त्य - ऐसे व्याप्यलक्षणवाले परद्रव्य के परिणामरूप कर्म को न करनेवाले ज्ञानी का पुद्गलकर्म के साथ कर्ताकर्मभाव नहीं है । प्राप्त, विकार्य और निर्वर्त्यरूप व्याप्यलक्षणवाले आत्मा के परिणामस्वरूप जो कर्म (कर्ता का कार्य), उसमें आत्मा स्वयं अन्तर्व्यापक होकर; आदि, मध्य और अन्त में व्याप्त होकर, उसे ग्रहण करता हुआ, उस रूप परिणमन करता हुआ और उस रूप उत्पन्न होता हुआ, उस आत्मपरिणाम को करता है । इसप्रकार आत्मा के द्वारा किये जानेवाले आत्मपरिणाम को जानता हुआ भी ज्ञानी, जिसप्रकार मिट्टी स्वयं घड़े में अन्तर्व्यापक होकर; आदि, मध्य और अन्त में व्याप्त होकर, घड़े को ग्रहण करती है, घड़े के रूप में परिणमित होती है और घड़े के रूप में उत्पन्न होती है; उसप्रकार ज्ञानी स्वयं बाह्यस्थित ऐसे परद्रव्य के परिणाम में अन्तर्व्यापक होकर, आदिमध्य-अन्त में व्याप्त होकर, उसे ग्रहण नहीं करता, उसरूप परिणमित नहीं होता और उस रूप उत्पन्न नहीं होता । इसलिए यद्यपि ज्ञानी अपने परिणाम को जानता तथापि प्राप्य, विकार्य और निर्वर्त्य - ऐसा जो व्याप्यलक्षणवाले परद्रव्य के परिणामस्वरूप कर्म है, उसे न करनेवाले ऐसे उस ज्ञानी का पुद्गल के साथ कर्ताकर्मभाव नहीं है । प्राप्त, विकार्य और निर्वर्त्य ऐसा, व्याप्यलक्षणवाले पुद्गलकर्मफलस्वरूप सुख-दुःखादिरूप कर्म (कर्ता का कार्य) में पुद्गलद्रव्य स्वयं अन्तर्व्यापक होकर; आदि, मध्य और अन्त में व्याप्त
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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