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परपदार्थ एवं रागभाव में रंचमात्र भी एकत्वबुद्धि नहीं रखनेवाले एवं अपने आत्मा को मात्र ज्ञायकस्वभावी जाननेवाले आत्मज्ञानी सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा को संबोधित करते हुए आचार्यदेव कहते हैं -
“एदम्हि रदो णिच्चं संतुट्ठो होहि णिच्चमेदम्हि ।
एदेण होहि तित्तो होहदि तुह उत्तमं सोक्खं ।।१८ हे भव्यप्राणी ! तू इस ज्ञानपद को प्राप्त करके इसमें ही लीन हो जा, इसमें ही निरन्तर सन्तुष्ट रह और इसमें ही पूर्णत: तृप्त हो जा; इससे ही तुझे उत्तम सुख (अतीन्द्रिय-आनन्द) की प्राप्ति होगी।'
इसप्रकार निर्जराधिकार समाप्त कर अब बंधाधिकार में कहते हैं कि जिसप्रकार धूल भरे स्थान में तेल लगाकर विभिन्न शस्त्रों से व्यायाम करनेवाले पुरुष को सचित्त-अचित्त केले आदि वृक्ष को छिन्न-भिन्न करने पर जो धूल चिपटती है, उसका कारण तेल की चिकनाहट ही है, धूल और शारीरिक चेष्टायें नहीं। उसीप्रकार हिंसादि पापों में प्रवर्तित मिथ्यादृष्टि जीव को होनेवाले पापबंध का कारण रागादिभाव ही हैं, अन्य चेष्टायें या कर्मरज आदि नहीं।
यहाँ एक प्रश्न संभव है कि अकेला अशुद्धोपयोग ही बंध का कारण क्यों है ? परजीवों का घात करना, उन्हें दुःख देना, उनकी सम्पत्ति आदि का अपहरण करना, झूठ बोलना आदि को बंध का कारण क्यों नहीं कहा गया है?
इसका उत्तर देते हुए आचार्यदेव कहते हैं कि प्रत्येक जीव अपने सुख-दुःख और जीवन-मरण आदि का उत्तरदायी स्वयं ही है, कोई अन्य जीव अन्य जीव को सुखी-दु:खी नहीं कर सकता और न मार-जिला ही सकता है। जब कोई व्यक्ति किसी का कुछ कर ही नहीं सकता तो फिर किसी अन्य के जीवन-मरण और सुख-दु:ख के कारण किसी अन्य को बंध भी क्यों हो?
सभी जीव अपने आयुकर्म के उदय से जीते हैं और आयुकर्म के समाप्त होने पर मरते हैं। इसीप्रकार सभी जीव अपने कर्मोदय के अनुसार सुखी-दुःखी होते हैं। जब कोई व्यक्ति किसी अन्य के आयु या कर्म को ले-दे नहीं सकता तो फिर उसके जीवन-मरण और सुख-दुःख का जिम्मेवार भी कैसे हो सकता है ?
हाँ, यह बात अवश्य है कि जीव दूसरों को मारने-बचाने एवं सुखी-दु:खी करने के भाव (अध्यवसान) अवश्य कर सकता है और इन भावों के कारण कर्मबंधन को भी प्राप्त हो सकता है। इसीप्रकार झूठ बोलने, चोरी करने, कुशील सेवन करने एवं परिग्रह जोड़ने के संदर्भ में भी समझना चाहिए।
जिसप्रकार बंधनों में जकड़ा हुआ पुरुष बंधन का विचार करते रहने से बंधन से मुक्त नहीं होता; उसीप्रकार कर्मबंधन का विचार करते रहने मात्र से कोई आत्मा कर्मबंधन से मुक्त नहीं होता; अपितु वह कर्मबंधन को छेदकर मुक्ति प्राप्त करता है। तात्पर्य यह है कि जो आत्मा बंध और आत्मा का स्वभाव जानकर बंध से विरक्त होते हैं, वे ही कर्मबंधनों से मुक्त होते हैं। __आत्मा और बंध के बीच प्रज्ञारूपी छैनी को डालकर जो आत्मा उन्हें भिन्न-भिन्न पहिचान लेते हैं; वे बंध को छेदकर शुद्ध आत्मा को ग्रहण कर लेते हैं। जिस प्रज्ञा से बंध से भिन्न निज आत्मा को जानते हैं, उसी प्रज्ञा से बंध से भिन्न निज को ग्रहण भी करते हैं। ज्ञानी आत्मा भलीभाँति जानते हैं कि मैं तो ज्ञानदर्शनस्वभावी आत्मा ही हँ, शेष सभी भाव मुझसे भिन्न भाव हैं। १८. समयसार, गाथा २०६
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