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सचेत करते हुए आचार्य कहते हैं कि इसलिए पुण्य-पाप इन दोनों कुशीलों के साथ राग मत करो, संसर्ग भी मत करो; क्योंकि कुशील के साथ संसर्ग और राग करने से स्वाधीनता का नाश होता है।
शुभाशुभभावरूप पुण्य-पापभाव भावास्रव हैं एवं उनके निमित्त से पौद्गलिक कार्माणवर्गणाओं का पुण्य-पाप प्रकृतियोंरूप परिणमित होना द्रव्यास्रव है। भगवान आत्मा (जीवतत्त्व) इन दोनों ही आस्रवों से भिन्न है। अज्ञानी जीव पुण्य और पाप में अच्छे-बुरे का भेद कर पुण्य को अपनाना चाहता है, उपादेय मानता है, मोक्षमार्ग जानता है; जबकि आस्रवतत्त्व होने से पाप के समान पुण्यतत्त्व भी हेय है, उपादेय नहीं; संसारमार्ग है, मोक्षमार्ग नहीं । यही भेदज्ञान कराना पुण्य-पाप अधिकार का मूल प्रयोजन है। ___ आस्रव अधिकार में सम्यग्दृष्टि ज्ञानी धर्मात्मा को निरास्रव सिद्ध किया गया है एवं इस संदर्भ में उठनेवाली शंका-आशंकाओं का निराकरण भी किया गया है। __ वस्तुतः बात यह है कि शुद्धनय के विषयभूत अर्थ (निज भगवान आत्मा) का आश्रय करनेवाले ज्ञानीजनों को अनंत संसार के कारणभूत आस्रव-बंध नहीं होते । रागांश के शेष रहने से जो थोड़े-बहुत आस्रव-बंध होते हैं, उनकी उपेक्षा कर यहाँ ज्ञानी को निरास्रव और निर्बंध कहा गया है। __आस्रव का निरोध संवर है। अत: मिथ्यात्वादि आस्रवों के निरोध होने पर संवर की उत्पत्ति होती है। संवर से संसार का अभाव और मोक्षमार्ग का आरंभ होता है, अत: संवर साक्षात् धर्मस्वरूप ही है।
सर्वदर्शी भगवान ने मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योगरूप अध्यवसानों को आस्रव का कारण कहा है। मिथ्यात्वादि कारणों के अभाव में ज्ञानियों के नियम से आस्रवों का निरोध होता है और आस्रवभाव के बिना कर्म का निरोध होता है। इसीप्रकार कर्म के अभाव में नोकर्म का एवं नोकर्म के अभाव में संसार का ही निरोध हो जाता है।
इसप्रकार हम देखते हैं कि संवर अनंतदुःखरूप संसार का अभाव करनेवाला एवं अनंत सुखस्वरूप मोक्ष का कारण है। संवररूप धर्म की उत्पत्ति का मूल कारण भेदविज्ञान है। यही कारण है कि इस ग्रन्थराज में आरंभ से ही पर और विकारों से भेदविज्ञान कराते आ रहे हैं।
सम्यग्दृष्टि ज्ञानी धर्मात्मा के आस्रव के अभावरूप संवर पूर्वक निज भगवान आत्मा का उग्र आश्रय होता है, उसके बल से आत्मा में उत्पन्न शुद्धि की वृद्धिपूर्वक जो कर्म खिरते हैं, उसे निर्जरा कहते हैं।
शुद्धि की वृद्धि भावनिर्जरा है और कर्मों का खिरना द्रव्यनिर्जरा। जिसप्रकार वैद्य पुरुष विष को भोगता हुआ भी मरण को प्राप्त नहीं होता; उसीप्रकार ज्ञानीपुरुष पुद्गलकर्म के उदय को भोगता हुआ भी बंध को प्राप्त नहीं होता।
जिसप्रकार मदिरा को अरतिभाव से पीनेवाला पुरुष मतवाला नहीं होता; उसीप्रकार ज्ञानी भी द्रव्यों के उपभोग के प्रति अरत रहने से बंध को प्राप्त नहीं होता।
सम्यग्दृष्टि ज्ञानी धर्मात्मा को क्रिया करते हुए एवं उसका फल भोगते हुए भी यदि कर्मबंध नहीं होता है और निर्जरा होती है तो उसका कारण उसके अन्दर विद्यमान ज्ञान और वैराग्य का बल ही है। इस बात को निर्जरा अधिकार में बहत ही विस्तार से स्पष्ट किया गया है।