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आत्मा ज्ञानस्वरूप है, स्वयं ज्ञान ही है; अत: वह ज्ञान के अतिरिक्त और क्या करे ? आत्मा परभाव का कर्ता है- ऐसा मानना व्यवहारी जीवों का मोह है, अज्ञान है।" __यद्यपि युद्ध योद्धाओं द्वारा ही किया जाता है, तथापि व्यवहार में यही कहा जाता है कि युद्ध राजा ने किया है। जीव को ज्ञानावरणादि कर्मों का कर्ता कहना - इसीप्रकार का व्यवहार है।
जिसप्रकार प्रजा के दोष-गुणों का उत्पादक राजा को कहा जाता है; उसीप्रकार पुद्गल द्रव्य के परिणमन का कर्ता जीव को कहा जाता है।
इसप्रकार अनेक उदाहरणों द्वारा परकर्तृत्व के व्यवहार की स्थिति स्पष्ट करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द लिखते हैं -
“उप्पादेदि करेदि य बंधदि परिणामएदि गिण्हदि य।
आदा पोग्गलदव्वं व्यवहार णयस्स वत्तव्वं ।।१७ आत्मा पुद्गल द्रव्य को उत्पन्न करता है, करता है, बाँधता है. परिणमन कराता है और ग्रहण करता है, यह व्यवहारनय का कथन है।"
वास्तव में देखा जाये तो आत्मा का परद्रव्य के साथ कोई भी संबंध नहीं है।
अज्ञानी आत्मा देहादि परपदार्थों एवं रागादि विकारों को निजरूप ही मानता है या फिर उन्हें अपना मानकर उनसे स्व-स्वामी संबंध स्थापित करता है, उनका स्वामी बनता है। यदि कदाचित् उन्हें अपना न भी माने तो भी उनका कर्ता-भोक्ता तो बनता ही है। ___ इसप्रकार अज्ञानी के पर से एकत्व-ममत्व एवं कर्तृत्व-भोक्तृत्व पाये जाते हैं । उक्त चारों ही स्थितियों
को अध्यात्म की भाषा में पर से अभेद ही माना जाता है। अत: पर से एकत्व-ममत्व एवं कर्तृत्व-भोक्तृत्व तोड़ना ही भेदविज्ञान है । जीवाजीवाधिकार में पर से एकत्व-ममत्व और कर्ता-कर्म अधिकार में पर के कर्तृत्व-भोक्तृत्व का निषेध कर भेदविज्ञान कराया गया है।
इसप्रकार उक्त दोनों ही अधिकार भेदविज्ञान के लिए ही समर्पित हैं।
ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मों एवं रागादिभावकों को पुण्य-पाप के रूप में भी विभाजित किया जाता है। इसप्रकार शुभभाव एवं शुभकर्मों को पुण्य एवं अशुभभाव एवं अशुभकर्मों को पाप कहा जाता है।
यद्यपि शुभाशुभरूप पुण्य और पाप दोनों ही कर्म हैं, कर्मबंध के कारण हैं, आत्मा को बंधन में डालनेवाले हैं; तथापि अज्ञानीजन पुण्य को अच्छा और पाप को बुरा मानते हैं। अज्ञानजन्य इस मान्यता का निषेध करने के लिए ही आचार्य कुन्दकुन्द ने पुण्य-पाप अधिकार का प्रणयन किया है। ___अज्ञानीजनों को संबोधित करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द इसी समयसार में कहते हैं कि तुम ऐसा जानते हो कि शुभकर्म सुशील है और अशुभकर्म कुशील है, पर जो शुभाशुभ कर्म संसार में प्रवेश कराते हैं, उनमें से कोई भी कर्म सुशील कैसे हो सकता है ?
जिसप्रकार लोहे की बेड़ी पुरुष को बाँधती है; उसीप्रकार सोने की बेड़ी भी बाँधती ही है। इसीप्रकार जैसे अशुभ (पाप) कर्म जीव को बाँधता है, वैसे ही शुभकर्म भी जीव को बाँधता ही है। बंधन में डालने की अपेक्षा पुण्य-पाप दोनों ही कर्म समान ही हैं।
१७. समयसार, गाथा १०७
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