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जिसप्रकार 'घी का घड़ा' कहे जाने पर भी घड़ा घीमय नहीं हो जाता; उसीप्रकार 'वर्णादिमान जीव' कहे जाने पर भी जीव वर्णादिमय नहीं हो जाता । "
यह सार है समयसार के पूर्वरंग और जीवाजीवाधिकार का । सम्पूर्ण विश्व को स्व और पर इन दो भागों में विभक्त कर, पर से भिन्न और अपने से अभिन्न निज भगवान आत्मा की पहिचान कराना यहाँ मूल प्रयोजन है ।
जीवाजीवाधिकार के अध्ययन से स्व और पर की भिन्नता अत्यन्त स्पष्ट हो जाने पर भी जबतक यह आत्मा स्वयं को पर का कर्ता-भोक्ता मानता रहता है; तबतक वास्तविक भेद-विज्ञान उदित नहीं होता ।
यही कारण है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने जीवाजीवाधिकार के तुरन्त बाद कर्ता-कर्म अधिकार लिखन आवश्यक समझा। पर के कर्तृत्व के बोझ से दबा आत्मा न तो स्वतंत्र ही हो सकता है और न उसमें स्वावलम्बन का भाव ही जागृत हो सकता है। यदि एक द्रव्य को दूसरे द्रव्य के कार्यों का कर्ता-भोक्ता स्वीकार किया जाता है तो फिर प्रत्येक द्रव्य की स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं रह जाता है । इस बात को कर्ता-कर्म अधिकार में बड़ी ही स्पष्टता से समझाया गया है।
आचार्य कुन्दकुन्द तो साफ-साफ कहते हैं -
"कम्मस्स य परिणामं णोकम्मस्स य तहेव परिणामं । ण करेइ एयमादा जो जाणदि सो हवदि णाणी ।। १५
आत्मा इस कर्म के परिणाम को तथा नोकर्म के परिणाम को करता नहीं है, मात्र जानता ही है, वह ज्ञानी है । "
यदि हम गहराई से विचार करें तो यह बात एकदम स्पष्ट हो जाती है कि यदि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य के कार्यों को करता है, उनके स्वतंत्र परिणमन में हस्तक्षेप करता है, उन्हें भोगता है तो फिर प्रत्येक द्रव्य की स्वतंत्रता का क्या अर्थ शेष रह जाता है ?
इस कर्ता-कर्म-अधिकार की उक्त गाथा में तो यहाँ तक कहा गया है कि पर के लक्ष्य से आत्मा में उत्पन्न होनेवाले मोह-राग-द्वेष आदि विकारी भावों का कर्ता भी ज्ञानी नहीं होता, वह तो उन्हें भी मात्र जानता ही है ।
आत्मा में उत्पन्न होनेवाले मोह-राग-द्वेष के भाव आस्रवभाव हैं। इस कर्ता-कर्म-अधिकार का आरंभ भी आत्मा और आस्रवों के बीच भेदविज्ञान से होता है। जब आत्मा भिन्न है और आस्रव भिन्न हैं तो फिर आस्रवभावों का कर्ता-भोक्ता भगवान आत्मा कैसे हो सकता है ?
जिनागम में जहाँ भी आत्मा को पर का या विकार का कर्ता-भोक्ता कहा गया है, उसे प्रयोजन विशेष से किया गया व्यवहारनय का कथन समझना चाहिए ।
आचार्य अमृतचन्द्र के शब्दों में वस्तुस्थिति तो यह है
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१५. समयसार, गाथा ७५
'आत्मा ज्ञानं स्वयं ज्ञानं ज्ञानादन्यत्करोति किम् । परभावस्य कर्तात्मा मोहोऽयं व्यवहारिणाम् ।।१६ १६. आत्मख्याति टीका, कलश ६२
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