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जिसप्रकार लोक में अपराधी व्यक्ति निरन्तर सशंक रहता है और निरपराधी व्यक्ति को पूर्ण निशंकता रहती है; उसीप्रकार आत्मा की आराधना करनेवाले निरपराधी आत्मा को कर्मबंधन की शंका नहीं होती । यह सार है मोक्षाधिकार का ।
अब सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार में कहते हैं कि जिसप्रकार आँख परपदार्थों को मात्र देखती ही है, उन्हें करती या भोगती नहीं; उसीप्रकार ज्ञान भी पुण्य-पापरूप अनेक कर्मों को, उनके फल को, उनके बंध को, निर्जरा व मोक्ष को जानता ही है, करता नहीं ।
एक द्रव्य को दूसरे पदार्थों का कर्ता-भोक्ता कहना मात्र व्यवहार का ही कथन है, निश्चय से विचार करें तो दो द्रव्यों के बीच कर्ता-कर्मभाव ही नहीं है ।
केवल व्यावहारिक दृष्टि से ही कर्ता और कर्म भिन्न माने जाते हैं; यदि निश्चय से वस्तु का विचार किया जाये तो कर्ता और कर्म सदा एक ही माने जाते हैं ।
स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्दादिरूप परिणमित पुद्गल आत्मा से यह नहीं कहते कि 'तुम हमें जानो' और आत्मा भी अपने स्थान को छोड़कर उन्हें जानने को कहीं नहीं जाता; दोनों अपने-अपने स्वभावानुसार स्वतंत्रता से परिणमित होते हैं। इसप्रकार स्वभाव से आत्मा परद्रव्यों के प्रति अत्यन्त उदासीन होने पर भी अज्ञान अवस्था में उन्हें अच्छे-बुरे जानकर राग-द्वेष करता है ।
शास्त्र में ज्ञान नहीं है; क्योंकि शास्त्र कुछ जानते नहीं हैं, इसलिए ज्ञान अन्य है और शास्त्र अन्य हैं - ऐसा जिनदेव कहते हैं। इसीप्रकार शब्द, रूप, गंध, रस, स्पर्श, कर्म, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, काल, आकाश एवं अध्यवसान में भी ज्ञान नहीं है; क्योंकि ये सब कुछ जानते नहीं हैं, अतः ज्ञान अन्य है और ये सब अन्य हैं । इसप्रकार सभी परपदार्थों एवं अध्यवसानभावों से भेदविज्ञान कराया गया है ।
अन्त में आचार्यदेव कहते हैं कि बहुत से लोग लिंग (भेष) को ही मोक्षमार्ग मानते हैं, किन्तु निश्चय से मोक्षमार्ग तो सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र ही है - ऐसा जिनदेव कहते हैं । इसलिए हे भव्यजनो ! अपने आत्मा को आत्मा की आराधनारूप सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्रमय मोक्षमार्ग में लगाओ, अपने चित्त को अन्यत्र मत भटकाओ ।
अत्यन्त करुणा भरे शब्दो में आचार्य कहते हैं -
"मोक्खपहे अप्पाणं ठवेहिं तं चेव झाहि तं चेय ।
तत्थेव विहर णिच्वं मा विहरसु अण्णदव्वेसु ।।४१२ । ।
हे भव्य ! तू अपने आत्मा को मोक्षमार्ग में स्थापित कर । तदर्थ अपने आत्मा का ही ध्यान कर, आत्मा में ही चेत, आत्मा का ही अनुभव कर और निज आत्मा में ही सदा विहार कर; परद्रव्यों में विहार
मत कर ।
समयसार शास्त्र का यही सार है, यही शास्त्र तात्पर्य है ।
इसप्रकार आचार्य अमृतचन्द्र के अनुसार ४१५ गाथाओं में आचार्य कुन्दकुन्दकृत समयसार समाप्त हो जाता है। इसके उपरान्त आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति टीका के परिशिष्ट के रूप में अनेकांतस्याद्वाद, उपाय-उपेयभाव एवं ज्ञानमात्रभाव और भगवान आत्मा की ४७ शक्तियों का बड़ा ही मार्मिक निरूपण करते हैं, जो मूलत: पठनीय है।
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