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________________ कर्ताकर्माधिकार १३९ की प्रवृत्ति से उत्पन्न क्लेशों से निवृत्त होता हुआ, स्वयं ज्ञानी होता हआ, जगत का साक्षी ज्ञाता-दृष्टा पुराण-पुरुष भगवान आत्मा अब प्रकाशित हो रहा है। कथमात्मा ज्ञानीभूतो लक्ष्यत इति चेत् - कम्मस्स य परिणामं णोकम्मस्स य तहेव परिणामं । ण करेइ एयमादा जो जाणदि सो हवदि णाणी ।।७५।। कर्मणश्च परिणामं नोकर्मणश्च तथैव परिणामम् । न करोत्येनमात्मा यो जानाति स भवति ज्ञानी ।।७५।। यः खलु मोहरागद्वेषसुखदुःखादिरूपेणांतरुत्प्लवमानं कर्मणः परिणामं स्पर्शरसगंधवर्णशब्दबंधसंस्थानस्थौल्यसोक्षम्यादिरूपेण बहिरुत्प्लवमानं नोकर्मणः परिणामं च समस्तमपि परमार्थतः पुद्गलपरिणामपुद्गलयोरेव घटमृत्तिकयोरिव व्याप्यव्यापकभावसद्भावात्पुद्गलद्रव्येण का ___ कलश की अन्तिम पंक्ति में यह कहा गया है कि 'यह भगवान आत्मा ज्ञानी होकर अब यहाँ प्रकाशमान हो रहा है और आगामी गाथा में ज्ञानी की पहिचान बताई गई है। इसप्रकार यह कलश आगामी गाथा की भूमिका भी बाँधता है और परप्रवृत्ति की उत्कृष्ट निवृत्ति की बात कर पिछली गाथाओं का उपसंहार भी करता है। ७५वीं गाथा की उत्थानिका में आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं - आत्मा ज्ञानी हो गया - यह कैसे जाना जाये ? - यदि कोई ऐसा पूछे तो कहते हैं कि (हरिगीत) करम के परिणाम को नोकरम के परिणाम को। जो ना करे बस मात्र जाने प्राप्त हो सद्ज्ञान को ।।७५।। जो आत्मा इस कर्म के परिणाम को तथा नोकर्म के परिणाम को करता नहीं है, मात्र जानता ही है, वह ज्ञानी है। कर्ताकर्माधिकार होने से यहाँ ज्ञानी की पहिचान बताते हए भी यही कहा गया है कि जो कर्म व नोकर्म के परिणाम को करता नहीं है, मात्र जानता है, वह ज्ञानी है। तात्पर्य यह है कि पर में कर्तृत्वबुद्धि ही अज्ञान है; अत: उसके समाप्त होते ही अज्ञान का नाश हो जाता है और आत्मा ज्ञानी हो जाता है। १९वीं गाथा में यह कहा था कि जबतक यह आत्मा कर्म और नोकर्म में अहंबुद्धि - एकत्वबुद्धि, ममत्वबुद्धि रखेगा, तबतक अज्ञानी रहेगा और यहाँ यह कहा जा रहा है कि कर्म और नोकर्म में कर्तृत्वबुद्धि नहीं रखनेवाला ज्ञानी है। इस गाथा के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "निश्चय से मोह, राग, द्वेष, सुख, दुःख आदि रूप से अंतरंग में उत्पन्न होता हुआ जो कर्म का परिणाम है और स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द, बंध, संस्थान, स्थूलता, सूक्ष्मता आदि रूप
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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