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समयसार से बाहर उत्पन्न होता हआ जो नोकर्म का परिणाम है; वे सब ही पुद्गल के परिणाम हैं। परमार्थ से जिसप्रकार घड़े के और मिट्टी के व्याप्य-व्यापकभाव का सद्भाव होने से कर्ता-कर्मपना है; स्वतंत्रव्यापकेन स्वयं व्याप्यमानत्वात्कर्मत्वेन क्रियमाणं पुद्गलपरिणामात्मनोर्घटकुंभकारयोरिव व्याप्यव्यापकभावाभावात् कर्तृकर्मत्वासिद्धौ न नाम करोत्यात्मा, किं तु परमार्थतः पुद्गलपरिणामज्ञानपुद्गलयोर्घटकुंभकारवव्याप्यव्यापकभावाभावात् कर्तृकर्मत्वासिद्धावात्मपरिणामात्मनोर्घटमृत्तिकयोरिव व्याप्यव्यापकभावसद्भावादात्मद्रव्येण का स्वतंत्रव्यापकेन स्वयं व्याप्यमानत्वात्पुद्गलपरिणामज्ञानं कर्मत्वेन कुर्वन्तमात्मानं जानाति सोऽत्यंतविविक्तज्ञानीभूतो ज्ञानी स्यात्।
न चैवं ज्ञातुः पुद्गलपरिणामो व्याप्य: पुद्गलात्मनोर्जेयज्ञायकसंबंधव्यवहारमात्रे सत्यपि पुद्गलपरिणामनिमित्तकस्य ज्ञानस्यैव ज्ञातुर्व्याप्यत्वात् ।।७५।। उसीप्रकार पुद्गलपरिणाम के और पुद्गल के ही व्याप्य-व्यापकभाव का सद्भाव होने से कर्ता-कर्मपना है।
पुद्गलद्रव्य स्वतंत्र व्यापक है, इसलिए पुद्गलपरिणाम का कर्ता है और पुद्गलपरिणाम उस व्यापक से स्वयं व्याप्त होने के कारण उसका कर्म है। इसलिए पुद्गलद्रव्य के द्वारा कर्ता होकर कर्मरूप से किये जानेवाले समस्त कर्म-नोकर्मरूप पुद्गलपरिणामों का कर्ता परमार्थ से आत्मा नहीं है; क्योंकि पुद्गल-परिणाम को और आत्मा को घट और कुम्हार की भाँति व्याप्य-व्यापक भाव के अभाव के कारण कर्ता-कर्मपने की असिद्धि है।
परन्तु परमार्थ से पुद्गलपरिणाम के ज्ञान को और पुद्गल को घट और कुम्हार की भाँति व्याप्य-व्यापकभाव का अभाव होने से कर्ता-कर्मपने की असिद्धि है और जिसप्रकार घड़े और मिट्टी में व्याप्य-व्यापकभाव का सद्भाव होने से कर्ता-कर्मपना है; उसीप्रकार आत्मपरिणाम और आत्मा के व्याप्य-व्यापकभाव का सदभाव होने से कर्ता-कर्मपना है।
आत्मद्रव्य स्वतंत्र व्यापक होने से आत्मपरिणाम का अर्थात् पुद्गलपरिणाम के ज्ञान का कर्ता है और पुद्गलपरिणाम का ज्ञान उस व्यापक का स्वयं व्याप्य होने से आत्मा का कर्म है।
इसप्रकार यह आत्मा पुद्गलपरिणाम के ज्ञान का कर्ता होने पर भी पुद्गलपरिणाम का कर्ता नहीं है; पुद्गलपरिणाम से अत्यन्त भिन्न ज्ञानस्वरूप होता हुआ ज्ञानी है।
पुद्गलपरिणाम के ज्ञान का कर्ता होने के कारण पुद्गलपरिणाम ज्ञाता का व्याप्य हो - ऐसा भी नहीं है; क्योंकि पुद्गल और आत्मा के ज्ञेय-ज्ञायक संबंध का व्यवहार होने पर भी, वह पुद्गलपरिणाम ज्ञाता का व्याप्य नहीं है, अपितु पुद्गलपरिणाम जिसका निमित्त (ज्ञेयरूप) है, ऐसा ज्ञान ही ज्ञाता का व्याप्य है। इसकारण पुद्गलपरिणाम का ज्ञान ही ज्ञाता का कर्म है।"
उक्त संपूर्ण कथन में न्याय और युक्ति से एक ही बात सिद्ध की गई है कि स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द, बंध, संस्थान आदि तो पुद्गलपरिणाम हैं ही; किन्तु मोह, राग, द्वेष, सुख-दु:ख आदि भी पुद्गलपरिणाम हैं और इनका कर्ता-भोक्ता निश्चय से पुद्गल ही है, आत्मा नहीं।
हाँ, आत्मा इनके ज्ञान का कर्ता अवश्य है, पर इनका नहीं; क्योंकि ज्ञान आत्मा का ही परिणाम है, इस कारण आत्मा इनके ज्ञान का कर्ता है।
इसप्रकार यह अत्यन्त स्पष्ट है कि अपनी स्व-परप्रकाशक शक्ति के कारण ही यह भगवान