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समयसार
१३८ उतना ही आस्रवों से निवृत्त होता है कि जितना विज्ञानघनस्वभाव होता है। इसप्रकार ज्ञान के होने का और आस्रवों की निवृत्ति का समकाल है।"
(शार्दूलविक्रीडित ) इत्येवं विरचय्य संप्रति परद्रव्यान्निवृत्तिं परां स्वं विज्ञानघनस्वभावमभयादास्तिघ्नुवानः परम् । अज्ञानोत्थितकर्तृकर्मकलनात् क्लेशानिवृत्तः स्वयं
ज्ञानीभूत इतश्चकास्ति जगतः साक्षी पुराणः पुमान् ।।४८।। आस्रवभाव पुण्यरूप भी होते हैं और पापरूप भी। तात्पर्य यह है कि आस्रव दो प्रकार के होते हैं - १. पुण्यास्रव और पापास्रव अथवा १. शुभास्रव और २. अशुभास्रव । __ध्यान देने की बात यह है कि यहाँ दोनों ही प्रकार के आस्रवभावों को अध्रुव, अनित्य, अशरण, दु:खरूप और दु:खों का कारण बताया जा रहा है। तात्पर्य यह है कि पुण्यभाव भी, शुभभाव भी अध्रुव, अनित्य और अशरण तो हैं ही, दुःखरूप भी हैं और दु:खों के कारण भी हैं। पुण्य और पाप दोनों ही भाव संसार परिभ्रमण के कारण होने से समान ही हैं। दोनों की समानता को आगे चलकर पुण्य-पापाधिकार में, पुण्य-पाप एकत्वद्वार में विस्तार से स्पष्ट किया जायेगा।
उक्त कथन से यह अत्यन्त स्पष्ट है कि पापास्रव के समान पुण्यास्रव भी आत्मा नहीं है; क्योंकि वह भी आत्मस्वभाव से विरुद्धस्वभाववाला है, आत्मा का घातक है, अध्रुव है, अनित्य है, दुःखरूप है और आगामी काल में भी दुःख देनेवाला है।
अब आगामी कलश में आचार्य अमृतचन्द्र ७३ एवं ७४वीं गाथा का उपसंहार करते हुए ७५वीं गाथा की सूचना भी देते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(सवैया इकतीसा ) इसप्रकार जान भिन्नता विभावभाव की,
कर्तृत्व का अहं विलीयमान हो रहा। निज विज्ञानघनभाव गजारूढ़ हो, ___निज भगवान शोभायमान हो रहा ।। जगत का साक्षी पुरुषपुराण यह,
अपने स्वभाव में विकासमान हो रहा। अहो सद्ज्ञानवंत दृष्टिवंत यह पुमान,
जग-मग ज्योतिमय प्रकाशमान हो रहा ।।४८।। इसप्रकार पूर्वोक्त विधि के अनुसार परद्रव्यों से सर्वप्रकार से उत्कृष्ट निवृत्ति करके तत्काल ही अपने विज्ञानघनस्वभाव पर निर्भयता से आरूढ़ होता हुआ, स्वयं का आश्रय करता हुआ, स्वयं को नि:शंकतया आस्तिक्यभाव में स्थिर करता हआ तथा अज्ञान से उत्पन्न हई कर्ता-कर्म