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________________ कर्ताकर्माधिकार १३७ दुःख के रूप में फलते हैं, दुःख के कारण हैं - ऐसा जानकर ज्ञानी उनसे निवृत्त होता है। जतुपादपवद्वध्यघातकस्वभावत्वाज्जीवनिबद्धाः खल्वास्रवाः, न पुनरविरुद्धस्वभावत्वाभावाजीव एव । अपस्माररयवद्वर्धमानहीयमानत्वादध्रुवा: खल्वास्रवाः, ध्रुवश्चिन्मात्रो जीव एव । शीतदाहज्वरावेशवत् क्रमेणोज्जृम्भमाणत्वादनित्याः खल्वास्रवाः, नित्यो विज्ञानघनस्वभावो जीव एव । बीजनिर्मोक्षक्षणक्षीयमाणदारुणस्मरसंस्कारवत्त्रातुमशक्यत्वादशरणा: खल्वास्रवाः, सशरण: स्वयं गुप्तः सहजचिच्छक्तिर्जीव एव। नित्यमेवाकुलस्वभावत्वादुःखानि खल्वास्रवाः, अदुःखं नित्यमेवानाकुलस्वभावो जीव एव । आयत्यामाकुलत्वोत्पादकस्य पुद्गलपरिणामस्य हेतुत्वादुःखफला: खल्वास्रवाः अदुःखफल: सकलस्यापि पुद्गलपरिणामस्याहेतुत्वाज्जीव एव। इति विकल्पानंतरमेव शिथिलतकर्मविपाको विघटितघनौघघटनो दिगाभोग इव निरर्गलप्रसरः सहजविजृम्भमाणचिच्छक्तितया यथा यथा विज्ञानघनस्वभावो भवति तथा तथास्रवेभ्यो निवर्तते, यथा यथास्रवेभ्यश्च निवर्तते तथा तथा विज्ञानघनस्वभावो भवतीति । तावद्विज्ञानघनस्वभावो भवति यावत्सम्यगास्रवेभ्यो निवर्तते, तावदानवेभ्यश्च निवर्तते यावत्सम्यग्विज्ञानघनस्वभावो भवतीति ज्ञानास्रवनिवृत्त्योः समकालत्वम् ।।७४।। आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में अनेक उदाहरण देकर इस गाथा के मर्म को इसप्रकार उद्घाटित करते हैं - ___“वृक्ष और लाख की भाँति वध्य-घातक स्वभाववाले होने से आस्रव जीव के साथ बँधे हुए हैं, तथापि अविरुद्धस्वभाव का अभाव होने से वे जीव नहीं हैं। आस्रव मृगी के वेग की भाँति बढ़ते-घटते होने से अध्रुव हैं, चैतन्यमात्र जीव ही ध्रुव है। आस्रव शीत-दाहज्वर के आवेश की भाँति अनुक्रम से उत्पन्न होते हैं, इसकारण अनित्य हैं और विज्ञानघनस्वभावी जीव नित्य है। जिसप्रकार वीर्यस्खलन के साथ ही दारुण कामसंस्कार नष्ट हो जाता है, किसी से रोका नहीं जा सकता; उसीप्रकार कर्मोदय के स्खलन के साथ ही आम्रवभाव नष्ट हो जाते हैं, उन्हें रोका नहीं जा सकता; इसलिए आस्रव अशरण हैं और स्वयंरक्षित सहजचित्शक्तिरूप जीव ही एकमात्र शरणसहित है। आस्रव सदा ही आकुलस्वभाववाले होने से दुःखरूप हैं और अनाकुलस्वभाववाला जीव ही एकमात्र अदुःखरूप है, सुखस्वरूप है। आगामी काल में आकुलता उत्पन्न करनेवाले पुद्गलपरिणामों के हेतु होने से आस्रव दुःख-फलरूप हैं, दुःखफलों के रूप में फलते हैं और समस्त पुद्गलपरिणामों का अहेतु होने से जीव दुःखफलरूप नहीं है। जिसमें बादलों की रचना खण्डित हो गई है, ऐसे दिशा विस्तार की भाँति अमर्याद है विस्तार जिसका और कर्मविपाक शिथिल हो गया है जिसका - ऐसा यह आत्मा, आस्रव और जीव के बीच उक्तप्रकार का भेदज्ञान होते ही सहजरूप से विकास को प्राप्त चित्शक्ति से ज्यों-ज्यों विज्ञानघनस्वभाव होता जाता है, त्यों-त्यों आस्रवों से निवृत्त होता जाता है; और ज्यों-ज्यों आस्रवों से निवृत्त होता जाता है, त्यों-त्यों विज्ञानघन होता जाता है। यह आत्मा उतना ही विज्ञानघनस्वभाव होता है कि जितना आस्रवों से निवृत्त होता है और
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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