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________________ १३४ समयसार (मालिनी) परपरिणतिमुज्झत् खंडयद्धेदवादानिदमुदितमखंडं ज्ञानमुच्चंडमुच्चैः । ननु कथमवकाशः कर्तृकर्मप्रवृत्ते रिह भवति कथंवा पौद्गल: कर्मबंधः।।४७।। यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि यहाँ सम्पूर्ण आस्रवभावों को अपवित्र कहा है, जड़ कहा है, दुःख का कारण कहा है। ऐसा नहीं कहा कि पापास्रव अपवित्र हैं, जड़ हैं, दु:खों के कारण हैं और पुण्यास्रव पवित्र हैं, चेतन हैं और सुख के कारण हैं। पापास्रवों को तो सारा जगत ही दु:ख का कारण बताता है, परन्तु यहाँ तो सम्पूर्ण आस्रवभावों को अर्थात् पुण्यभावों को भी दुःख का कारण बताया गया है। उक्त चार गाथाओं में यह सिद्ध किया गया है कि जबतक यह आत्मा आत्मा और आस्रवों के भेद को नहीं जानेगा, तबतक कर्म का बंध होगा और जब यह आत्मा उन दोनों की भिन्नता आत्मानुभूतिपूर्वक भलीभाँति जान लेगा; तब बंध का निरोध हो जायेगा। अन्त में इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि ज्ञान ही एक ऐसा साधन है कि जिसके माध्यम से कर्ताकर्म की प्रवृत्ति से निवृत्ति भी होगी और पौद्गलिक कर्म के बंध का भी निरोध होगा। अतः अब आगामी कलश के माध्यम से उस ज्ञान की महिमा बता रहे हैं। ध्यान रहे, यह कलश चार गाथाओं की विषयवस्तु को अपने में समेटे है; अत: यह कलश इन चार गाथाओं रूपी मन्दिर पर चढ़ाया जा रहा है। कलश का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत ) परपरिणति को छोड़ती अर तोड़ती सब भेदभ्रम । यह अखण्ड प्रचण्ड प्रगटित हुई पावन ज्योति जब ।। अज्ञानमय इस प्रवृत्ति को है कहाँ अवकाश तब । अर किसतरह हो कर्मबंधन जगी जगमग ज्योति जब ।।४७।। परपरिणति को छोड़ता हुआ, भेद के कथनों को तोड़ता हुआ, यह अखण्ड और अत्यन्त प्रचण्ड ज्ञान प्रत्यक्ष उदय को प्राप्त हुआ है। अहो ! ऐसे ज्ञान में कर्ताकर्म की प्रवृत्ति को कहाँ अवकाश है तथा पौद्गलिक कर्मबंध भी कैसे हो सकता है ? तात्पर्य यह है कि ज्ञानरूपी सूर्य के अखण्ड और प्रचण्ड उदय होने पर कर्ताकर्म प्रवृत्ति और कर्मबंध का अंधकार नष्ट होता ही है। यदि कोई कहे कि यह आत्मा आस्रवों से किस विधि से निवृत्त होता है तो उससे कहते हैं कि -
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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