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कर्ताकर्माधिकार
१३३ आकुलत्वोत्पादकत्वादुःखस्य कारणानि खल्वास्रवाः, भगवानात्मा तु नित्यमेवानाकुलत्वस्वभावेनाकार्यकारणत्वादुःखस्याकारणमेव।
इत्येवं विशेषदर्शनेन यदैवायमात्मात्मास्रवयोर्भेदं जानाति तदैव क्रोधादिभ्य आस्रवेभ्यो निवर्तते, तेभ्योऽनिवर्तमानस्य पारमार्थिकतद्भेदज्ञानासिद्धेः। ततः क्रोधाद्यास्रवनिवृत्त्यविनाभाविनो ज्ञानमात्रादेवाज्ञानजस्य पौद्गलिकस्य कर्मणो बन्धनिरोधः सिध्येत् ।
किं च यदिदमामात्मास्रवयोर्भेदज्ञानं तत्किमज्ञानं किं वा ज्ञानम् ? यद्यज्ञानं तदा तदभेदज्ञानान्न तस्य विशेषः । ज्ञानं चेत् किमास्रवेषु प्रवृत्तं किं वास्रवेभ्यो निवृत्तम्? आस्रवेषु प्रवृत्तं चेत्तदापि तदभेदज्ञानान्न तस्य विशेषः । आस्रवेभ्यो निवृत्तं चेत्तर्हि कथं न ज्ञानादेव बन्धनिरोधः । इति निरस्तोऽज्ञानांशः क्रियानयः ।
यत्त्वात्मानवयोर्भेदज्ञानमपि नास्रवेभ्यो निवृत्तं भवति तज्ज्ञानमेव न भवतीति ज्ञानांशो ज्ञाननयोऽपि निरस्तः ।।७२।।
आकुलता उत्पन्न करनेवाले होने से आम्रवभाव दुःख के कारण हैं और भगवान आत्मा तो नित्य ही अनाकुल स्वभाववाला होने से किसी का कार्य या कारण न होने से दुःख का अकारण ही है।
जब यह आत्मा, आत्मा और आस्रवों में इसप्रकार का भेद जानता है, अन्तर जानता है, तब उसीसमय क्रोधादि आस्रवों से निवृत्त हो जाता है; क्योंकि उनसे निवृत्त हुए बिना आत्मा और आस्रवों के पारमार्थिक भेदज्ञान की सिद्धि ही नहीं होती है। इसलिए क्रोधादि आस्रवभावों से निवृत्ति के साथ अविनाभावी रूप से रहनेवाले ज्ञानमात्र से ही अज्ञानजन्य पौद्गलिक कर्म के बंध का निरोध सिद्ध होता है।
अब इसी बात को तर्क और युक्ति से सिद्ध करते हए आचार्यदेव पूछते हैं कि आत्मा और आस्रवों का उक्त भेदज्ञान ज्ञान है कि अज्ञान है ?
यदि अज्ञान है तो फिर आत्मा और आस्रवों के बीच अभेदज्ञानरूप अज्ञान से उसमें क्या अन्तर रहा अर्थात् कोई अन्तर नहीं रहा और यदि वह ज्ञान है तो हम पूछते हैं कि वह आस्रवों में प्रवृत्त है या उनसे निवृत्त है ?
यदि वह ज्ञान आस्रवों में प्रवृत्त है तो भी आस्रवों और आत्मा के अभेदज्ञान रूप अज्ञान से उसमें कोई अन्तर नहीं रहा और यदि वह ज्ञान आस्रवों से निवृत्त है तो फिर ज्ञान से ही बंध का निरोध सिद्ध क्यों नहीं होगा ? अर्थात् ज्ञान से ही बंध का निरोध सिद्ध हो ही गया। इसप्रकार अज्ञान का अंश जो क्रियानय, उसका खण्डन हो गया।
'यदि आत्मा और आस्रवों का भेदज्ञान आस्रवों से निवृत्त न हो तो वह ज्ञान ही नहीं है' - ऐसा सिद्ध होने से ज्ञान के अंश एकान्त ज्ञाननय का भी खण्डन हो गया।"
राग की मंदता और तदनुरूप शरीरादि की क्रिया से बंध का निरोध मानना क्रियानय का एकान्त है और अनुभवज्ञान के बिना शास्त्रज्ञान से आत्मा और आस्रवों की भिन्नता जान लेने मात्र से बंध का निरोध मानना ज्ञाननय का एकान्त है। - इन दोनों एकान्तों का यहाँ खण्डन किया गया है।