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कथं ज्ञानमात्रादेव बन्धनिरोध इति चेत् -
णादूण आसवाणं असुचित्तं च विवरीयभावं च । दुक्खस्स कारणं तिय तदो णियत्तिं कुणदि जीवो । ।७२।। ज्ञात्वा आस्रवाणामशुचित्वं च विपरीतभावं च ।
दुःखस्य कारणानीति च ततो निवृत्तिं करोति जीव: ।। ७२ ।।
जले जंबालवत्कलुषत्वेनोपलभ्यमानत्वादशुचयः खल्वास्रवाः, भगवानात्मा तु नित्यमेवाति
निर्मलचिन्मात्रत्वेनोपलंभकत्वादत्यंतं शुचिरेव ।
जडस्वभावत्वे सति परचेत्यत्वादन्यस्वभावा: खल्वास्रवाः, भगवानात्मा तु नित्यमेव विज्ञानघनस्वभावत्वे सति स्वयं चेतकत्वादनन्यस्वभाव एव ।
समयसार
७१वीं गाथा में यह सिद्ध किया गया है कि ज्ञानमात्र से ही बंध का निरोध होता है । अत: यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि ज्ञानमात्र से बंध का निरोध कैसे हो सकता है ? क्या अकेले जाननेमात्र से बंध का निरोध हो जायेगा, कुछ करना नहीं होगा ?
उक्त शंका के समाधान के लिए ७२वीं गाथा का जन्म हुआ है । यही कारण है कि आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति की उत्थानिका में लिखते हैं -
यदि कोई कहे कि ज्ञानमात्र से बंध का निरोध किसप्रकार हो सकता है तो उसके उत्तर में कहते हैं कि
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( हरिगीत )
इन आस्रवों की अशुचिता विपरीतता को जानकर ।
आतम करे उनसे निवर्तन दुःख कारण मानकर ।। ७२ ।।
आस्रवों की अशुचिता एवं विपरीतता जानकर और वे दुःख के कारण हैं - ऐसा जानकर जीव उनसे निवृत्ति करता है।
इस गाथा के भाव को आत्मख्याति में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
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“जिसप्रकार काई (सेवाल) जल का मैल है, जल की कलुषता है; उसीप्रकार आस्रवभाव भी आत्मा के मैल हैं, वे आत्मा में कलषुता के रूप में ही उपलब्ध होते हैं, कलुषता के रूप में ही अनुभव में आते हैं; अत: अशुचि हैं, अपवित्र हैं और भगवान आत्मा तो सदा ही अतिनिर्मल चैतन्यभाव से ज्ञायकभाव रूप से उपलब्ध होता है, अनुभव में आता है; अत: अत्यन्त शुचि ही है, परमपवित्र ही है ।
जड़स्वभावी होने से आस्रवभाव दूसरों के द्वारा जाननेयोग्य हैं, इसलिए वे चैतन्य से अन्य स्वभाववाले हैं, विपरीत स्वभाववाले हैं और भगवान आत्मा तो नित्य विज्ञानघनस्वभाववाला होने से स्वयं ही चेतक है, जाननेवाला है; इसलिए वह चैतन्य से अनन्य स्वभाववाला है, अविपरीत स्वभाववाला है।