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________________ कर्ताकर्माधिकार १३५ केन विधिनायमास्रवेभ्यो निवर्तत इति चेत् - अहमेक्को खलु सुद्धो णिम्ममओ ण । ण द स ण स म र ग । । तम्हि ठिदो तच्चित्तो सव्वे एदे खयं णेमि ।।७३।। अहमेकः खलु शुद्धः निर्ममत: ज्ञानदर्शनसमग्रः। तस्मिन् स्थितस्तच्चित्त: सर्वानेतान् क्षयं नयामि ।।७३।। अहमयमात्मा प्रत्यक्षमक्षुण्णमनंतं चिन्मात्रंज्योतिरनाद्यनंतनित्योदितविज्ञानघनस्वभावभावत्वादेकः, सकलकारकचक्रप्रक्रियोत्तीर्णनिर्मलानुभूतिमात्रत्वाच्छुद्धः, पुद्गलस्वामिकस्य क्रोधादि -भाववैश्वरूपस्य स्वस्य स्वामित्वेन नित्यमेवापरिणमनान्निर्ममतः, चिन्मात्रस्य महसो वस्तुस्वभावत एव सामान्यविशेषाभ्यां सकलत्वाद् ज्ञानदर्शनसमग्रः, गगनादिवत्पारमार्थिको वस्तुविशेषोऽस्मि। __ तदहमधुनास्मिन्नेवात्मनि निखिलपरद्रव्यप्रवृत्तिनिवृत्त्या निश्चलमवतिष्ठमानः सकलपरद्रव्यनिमित्तकविशेषचेतनचंचलकल्लोलनिरोधेनेममेव चेतयमानः स्वाज्ञानेनात्मन्युत्प्लवमानानेतान् (हरिगीत ) मैं एक हूँ मैं शद्ध निर्मम ज्ञान-दर्शन पर्ण हैं। थित लीन निज में ही रहूँसब आस्रवों का क्षय करूँ।।७३।। ज्ञानी विचारता है कि मैं निश्चय से एक हूँ, शुद्ध हूँ, निर्मम हूँ और ज्ञान-दर्शन से पूर्ण हूँ। इसप्रकार के आत्मस्वभाव में स्थित रहता हुआ, उसी में लीन होता हुआ मैं इन सभी क्रोधादि आस्रवभावों का क्षय करता हूँ। यह गाथा समयसार की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण गाथाओं में से एक गाथा है। इसमें जिनागम का सार भर दिया गया है, आत्मा के अनुभव की विधि बताई गई है, अनुभव होने की प्रक्रिया समझाई गई है। गाथा की पहली पंक्ति में आत्मा का पारमार्थिक स्वरूप स्पष्ट कर अब दूसरी पंक्ति में आचार्यदेव कहते हैं कि उक्त आत्मा में स्थित होना और लीन होना ही अज्ञानजन्य समस्त आस्रवों के क्षय का एकमात्र उपाय है। आचार्य अमृतचन्द्र इस गाथा का अर्थ आत्मख्याति में इसप्रकार करते हैं - __ "मैं, यह प्रत्यक्ष, अखण्ड, अनन्त, चिन्मात्रज्योति आत्मा; अनादि-अनन्त, नित्य-उदयरूप, विज्ञानघनस्वभावभाववाला होने से एक हूँ; समस्त (छह) कारकों के समूह की प्रक्रिया से पार को प्राप्त जो निर्मल अनुभूति, उस अनुभूति मात्रपने से शुद्ध हूँ; पुद्गल द्रव्य है स्वामी जिनका - ऐसे विश्वरूप (अनेकप्रकार के) क्रोधादिभावों के स्वामीपने से स्वयं सदा ही परिणमित नहीं होने से निर्मम हूँ और चिन्मात्रज्योति का वस्तुस्वभाव से ही सामान्य-विशेषात्मक होने से, सामान्य-विशेष से परिपूर्ण होने से ज्ञान-दर्शन से परिपूर्ण हूँ - ऐसा मैं आकाशादि द्रव्यों के समान ही पारमार्थिक वस्तुविशेष हूँ।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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